26/01/2023
ऋतु-चक्र : मौसम के इस संधिकाल में... पवन में, बयार में वसंत
जो इसे देखना चाहते हैं, देख ही लेते हैं, फूलों-पत्तियों में, आकाशी रंगों में, पवन में, बयार में, आसपास के गमलों में भी दिखती हुई फूलों की बहार में।
फिर से वसंत ऋतु आ गई है। हर साल आती है, अपने क्रम से। यह अलग बात है कि वह आसपास पहले जैसी दिखती नहीं है। पहले की तरह उसकी पिटारी की चीजें-कलियां, तितलियां, बहुतायत में आम्र मंजरियां कहां दिखती हैं! खासतौर से जो महानगरों, शहरों में बहुमंजिली इमारतों से घिरे हुए रहते हैं, उन्हें कहां सुनाई पड़ती है कोयल की बोली! वे गाड़ियों और उनके शोर से घिरे रहते हैं। उन्हें वसंत ऋतु नहीं दिखती है, दिखती हैं गाड़ियों की कतारें। दिखते हैं दोपहिया, बसें, होर्डिंग्स, तरह-तरह के विज्ञापन। विज्ञापन युग में वसंत ऋतु दुबकी हुई ही मिलती है। पर उसको आना है, आती ही है। हमें दिखाई पड़े या न दिखाई पड़े।
जो इसे देखना चाहते हैं, देख ही लेते हैं, महसूस कर लेते हैं, कुछ तो फूलों-पत्तियों में, आकाशी रंगों में, पवन में, बयार में, आसपास के गमलों में भी दिखती है फूलों की बहार में। जिन खोजा तिन पाइयां। हां, निराश होने की जरूरत नहीं है। बनन में, बागन में, बगरो वसंत है-पद्माकर की तर्ज पर देखें, तो शहरी पार्कों में फूलों के भांति-भांति के रंग दिखते हैं! और फल-फूल-सब्जियों-उनकी मंडियों, दुकानों, सड़क-पटरियों पर उनकी एक नई आमद दिखती है!
बहुत पहले कवि सोहनलाल द्विवेदी ने वसंती पवन शीर्षक कविता में ये पंक्तियां लिखी थीं- जब करने को मैं चला भ्रमण, तब मिली आज कुछ नई पवन/भीनी-भीनी इसकी सुगंध/जिससे भौंरे बन जाएं अंध/यह पवन भरी थी मधुर गंध/तन हुआ मगन, मन हुआ मगन, जब मिली सुगंधित नई पवन/कुछ कुछ ऐसा तब हुआ भान-इसमें सुगंध भी भांत-भांत/ आसान न सब जानना बात/ बस मीठा था दिसि का कण-कण/यों मिली अनोखी सुखद पवन।
आज भी दिसि का कण-कण कुछ तो मीठा लगने ही लगा है। मैं दिल्ली-एनसीआर में रहने वाला नोएडा निवासी जब प्रातः भ्रमण पर निकलता हूं, तो पवन में कुछ तो मिठास-सुवास पाता हूं। अन्य सोसाइटियों की तरह मेरी सोसाइटी भी कुछ अधिक फूलों-रंगों से लद गई है। जोशना बनर्जी आडवाणी ने एक कविता में लिखा है-एक लीला रचने आते हैं दिन रात। और बहुत पहले महादेवी वर्मा ने लिखी थीं ये पंक्तियां-पुलकती आ वसंत रजनी। यह न भूलें कि कविता भी, किसी भी भाषा, किसी भी देश-समाज की कविता बहुत कुछ बचाकर रखती है अपने समाज, अपने अंचल और अपने देश की बातें। और उनके उच्चारण मात्र से फिर से सृजित हो जाती है कोई ऋतु, कोई वनस्पति, कोई लीला। सो याद है कि हमारे समय के अप्रतिम चित्रकार, कवि, कला-चिंतक जगदीश स्वामीनाथन कभी-कभी सहसा ही मित्रों के बीच बैठे हुए पाठ-सा करने लगते थे-महादेवी की इस कविता का-पुलकती आ वसंत रजनी-तारों मय नव वेणी बंधन...फूल शीश यह शशि का नूतन...।
और महादेवी ने ही अपनी एक अन्य वसंत कविता में लिखा है-देव! आज वसंत/ में हो राग-उन्मद/बोलता है पिक सुनो/टुक यह मधुर स्वर, और प्रतिध्वनि सी/उसी की जान पड़ता/दूसरे पिक का 'कुहू' में दिया उत्तर।
फिर वसंत ऋतु की एक तिथि भी तो है-वसंत पंचमी और उस अवसर पर होने वाली सरस्वती पूजा-अर्चना-वंदना। स्कूलों में भी मनाई जाती है वसंत पंचमी। इसी बहाने मोबाइल युग के बच्चों तक भी कुछ तो खबर पहुंचती है वसंत-श्री की, वसंत ऋतु की।
हमारे देश में हमारी भाषाओं में बहुत हुआ है वसंत का गुणगान। वसंत के वृक्ष शृंखला की संस्कृत कविताओं में से यह कविता देखिए-आम का वृक्ष हो गया युवा/क्रीड़ा करते चंचल भ्रमर टूट पड़ते हैं उस पर/उनके भार से टूटते हैं उसके अंकुर/टूटने से अंकुरों का रस बह उठता है/बहकर सींच देता है समीर को/समीर भर जाता है सौरभ से/उसको सटकाता है यह आम का वृक्ष/और फिर भी यह होता जाता है अविचल मुकुलित/बांटता हुआ उन्माद/आम का यह युवा वृक्ष। -अज्ञात (श्रीधर दासकृत सदुक्ति कर्णामृत)
तो बहुत कुछ है देखने-सोचने-पढ़ने को वसंत-श्री पर, उसकी शोभा पर, उसके अपने पकवान हैं, तिल-गुड़-गजक भी। अमरूद जैसे उसके अपने फल हैं, जिन पर मंडराते हैं तोते। मोबाइल युग में तो फेसबुक पर ही ज्यादातर ली-दी जाती हैं वसंत पंचमी की शुभकामनाएं।