Paagi The Guide

Paagi The Guide Bhawani Singh Rathore, Professionally a Tour-Guide, speak Marwari, Hindi, English & German Languages.

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01/12/2023

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30/07/2023

Vande Bharat Express Train Journey: India's high speed train

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3 Tigers together around our Vehicle at Ranathambore National Park|एक सफ़ारी में 3 टाइगर एक साथ👇
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Kalbeliya Dance|Rajasthani Folk Dance At Amer Fort(Jaipur)|राजस्थानी कालबेलिया डांस👇
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Meter gauge Train Journey of Kamlight-Goram ghat, Rajasthan, India|राजस्थान की एकमात्र मीटरगेज रेलवे👇
https://youtu.be/gjQrqxztnmI

Best ever Tiger Sighting at Ranthambore National Parks |रणथम्भौर की सबसे बढ़िया टाईगर साइटिंग👇
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20/07/2023

Dolphins in Action: Thrilling Chase on a Dhow Cruise

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09/07/2023

Landing Amidst Majestic Mountains: Khasab Musandam, Oman


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08/07/2023

Thrilling Takeoff from Muscat Airport - Incredible Views!

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02/07/2023

Epic Dolphin Chase: Ocean Adventure Caught on Camera

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01/07/2023

Discover the Magic of Khasab & Bukha: Msc Poesia Cruise Tour

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सांस्कृतिक-झरोखा ***************बल्लू चाम्पावत ************बल्लू चाम्पावत केवल एक नाम नहीं है वह प्रतीक है, प्रचण्ड साहस...
29/06/2023

सांस्कृतिक-झरोखा
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बल्लू चाम्पावत
************
बल्लू चाम्पावत केवल एक नाम नहीं है वह प्रतीक है, प्रचण्ड साहस का, नैतिक सामर्थ्य का, उज्ज्वल चरित्र का, तेजस्विता का, निष्ठा का, स्वामिभक्ति का, वचन-बद्धता और मानवीय गरिमा का |

बल्लू चांपावत का जन्म भारत में उस समय हुआ जब मुगल सत्ता जम चुकी थी |मेवाड़ और दूसरे छिटपुट प्रतिरोधों को छोड़ दिया जाय तो सारे राजपूत मुगल-सत्ता से जुड़ चुके थे |

बल्लूजी का जन्म मारवाड़ के हरसोलाव में राव गोपालदास के यहाँ हुआ | माता महाकंवर भटियाणी राव गोविन्ददास मानसिंहोत बीकमपुर की पुत्री थी | (बीकमपुर केल्हणोतों का ठिकाना था|) वे राजा गजसिंह के साथ दक्षिण में गए थे तब उनको हरसोलाव मिला था | बाद में वे राव अमरसिंह के साथ भी रहे | राव अमरसिंह से उनका एक संवाद हुआ और उन्होंने नागौर छोड़ दिया |

लोक में प्रचलित है कि राव अमरसिंह ने उन्हें पशु चराने का एक दिन का काम सौंपा | बल्लूजी ने कहा कि यह काम मेरा नहीं गड़रियों का है | तब राव अमरसिंह ने नाराजगी भरे आवेशित से स्वर में कहा कि ‘तब तो आप बादशाही घड़ (सेना) ही मोड़ेंगे |’ स्वाभिमानी बल्लूजी फिर नागौर एक क्षण भी नहीं रुके |

इसी तरह बीकानेर में उनके सामने ‘मतीरौ’ (तरबूज) जैसे शब्द का उच्चारण से ही उन्होंने बीकानेर छोड़ दिया था | राजस्थानी में ‘मतीरौ’ शब्द का अर्थ ‘ठहरना नहीं है’ होता है | ऐसे ध्वन्यार्थ समझने वाले तेजस्विता के प्रतीक बल्लूजी ने जयपुर, बूंदी और मेवाड़ में भी सेवाएं दी थी|

शाहजहाँ ने उन्हें 500 का मनसब और जागीर दी थी| बादशाही के समय उनकी जागीर में 127 गाँव थे |

राणा जगत सिंह ने बल्लूजी को ‘नीलधवल’ घोड़ा भेंट किया था, आख्यानों के अनुसार इसी ‘नीलधवल’ पर सवार होकर वे राव अमरसिंह की देही लेकर आये थे |

बल्लूजी के आख्यान और शौर्य से इतिहास भरा पड़ा है| सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कामू ने इतिहास पर टिप्पणी करते कहा है कि ‘कुछ लोग इतिहास जीते हैं|’

बल्लूजी ऐसे ही इतिहास जीने वाले लोगों में थे | वे राव चाम्पाजी के वीर पुत्र राव भैरवदास के वंशज थे| बल्लूजी इतिहास में इसलिए अमर हैं क्योंकि उन्होंने एक उलाहने को सत्य साबित करने के लिए अपने प्राण न्यौछावर किये थे |

राव अमरसिंह राठौड़ की कथा सब जानते हैं | उनकी लाश को चील-कौवों को खिलाने के लिए अपमानजनक तरीके से आगरे के किले की दीवार पर डाल दी गई थी, तब की कहानी है यह बल्लूजी की |

राव अमरसिंह की मृत्यु के बाद बादशाह शाहजहाँ ने राजपूतों को चेतावनी भिजवाई थी, जिसमें बल्लूजी भी शामिल थे | बादशाह का कहना था कि जिसने जुर्म कर लिया था, उसने सजा पा ली | अब आप लोग उस जुर्म में शामिल होकर अपने पतन की राह क्यों बना रहे हो ?

26 जुलाई 1644 की घटना है यह | आगरा में उस समय कोई बलवा न हो यही बादशाह की मंशा थी | इतिहासकारों ने इस घटना पर भिन्न भिन्न प्रकार से लिखा है किन्तु वास्तविकता के नजदीक तथ्य इस प्रकार है कि बल्लूजी ने यहाँ तरकीब से काम लिया था |

उन्होंने सन्देशवाहक से कहा कि ‘हमें स्वामी के दर्शन करने की इजाजत दी जाय|’ बादशाह ने इसे मंजूर कर लिया| इसके पीछे दो कारण थे| बादशाह राजपूतों को शांत करना चाहता था ताकि व्यर्थ के खूनखराबे से बचा जाए | दूसरा यह कि शेर खुद पिंजड़े में आ रहा था, इसलिए अगर कोई अनहोनी भी घटती तो किले में उस पर काबू आसानी से पाया जा सकता था |

किले के कपाट खोल दिए गए और घुड़सवार बल्लूजी जब अंदर आये तो कपाट बंद कर दिए गए | बल्लूजी सावधान थे और उन्होंने अपने मस्तिष्क में योजना बना रखी थी | बादशाह खुद अंतिम दरवाजे पर सामने आया |

बल्लूजी ने उचित अवसर जानकर कहा –

‘हुजूर जो होना था हो चुका, ऊपरवाले को यही मंजूर था | मुझे कोई गलतफहमी नहीं है | मैं मेरे वतन लौटना चाहता हूँ पर लौटने से पहले अपने पहले वाले स्वामी को अंतिम प्रणाम करना चाहता हूँ |’

बल्लूजी का कथन जायज था, बादशाह को वह उचित लगा और उन्होंने सैनिकों को राव अमरसिंह की लाश बल्लूजी के सामने लाने का हुकम दिया, ताकि वे उन्हें अंतिम प्रणाम कर सकें | चारों तरफ सैनिकों का घेरा था |

बालूजी जानते थे कि किले के कपाट बंद हो चुके हैं | शेर वाकई पिजरे में आ चुका था | उनके सामने अमरसिंह की देह पड़ी थी | वे घोड़े से उतरे | प्रणाम की मुद्रा में अमरसिंह की देह तक पहुंचे और पलक झपकते ही देह को कंधे पर लेकर घोड़े पर चढ़े और तीर की तरह घोड़ा दौड़ाया| घोड़ा हवा में उछला, किले की दीवार की तरफ लपका और दीवार पर चढ़ गया |

बल्लूजी ने अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य से घोड़े को किले की दीवार से नीचे कुदवा दिया | ‘नीलधवल’ बल्लूजी और राव अमरसिंह की देह के साथ धरती पर था|

इस चमत्कारिक कृत्य पर बादशाह के सैनिक हक्के-बक्के रह गए और चिल्लाए – ‘ यह आदमी है कि फ़रिश्ता ?’

किले की खाई के बाहर भावसिंह कुम्पावत आठ सौ राजपूतों के साथ खड़े थे | बल्लूजी दूसरे घोड़े पर सवार हुए और मुगल सेना से भिड़ गए |

एक जबरदस्त युद्ध बोखारा दरवाजे के बाहर हुआ| राव अमरसिंह की देह को यमुना किनारे चित्ता-स्थल पहुँचाया, उनका वहाँ रानियाँ इंतजार कर रही थी | रानी हाडीजी और गौड़जी ने अंतिम समय में बल्लूजी को आशीष दी |

लोक आख्यानों के अनुसार बल्लूजी जूंझार हुए | शिर कटने के बाद भी लड़ने वाले को राजस्थान में जून्झार कहते हैं | कवियों ने बल्लूजी के शब्दों में कहा –

बलू कहे गोपाळ रो, सतियाँ हाथ संदेश |
पतसाही घड़ मोड़ नै, आवां छां अमरेश ||

(गोपालदास का पुत्र बल्लू सतियों के हाथ सन्देश भेजता हुआ कहता है कि हे अमरसिंहजी ! मैं बादशाही घड़ मोड़कर कुछ समय पश्चात आपके पास आ रहा हूँ |)

राव अमरसिंह के उलाहने कि ‘आप क्या बादशाही घड़ (सेना) मोडेंगे ?’ को उनके मरने के बाद बल्लूजी ने पूरा किया, जबकि कहने वाला रहा ही नहीं था |

यह राजस्थान के लोगों की वह चारित्रिक निष्ठा है जिस पर सम्पूर्ण मनुष्य जाति मुग्ध है |

उनकी स्मृति में बनी छतरी ‘राठौड़ की छतरी’ के नाम से विख्यात रही जो वर्तमान में खंडहर बनी आगरा के किले के पास यमुना किनारे स्थित है |

‘नील धवल’ घोड़े की तेजस्विता से बादशाह शाहजहाँ इतना प्रभावित हुआ था कि उसने लाल पत्थर की घोड़े की मुखाकृति उस स्थान पर स्थापित की जहां घोड़ा छलांग लगाकर गिरा था | सन 1961 तक यह मूर्ति-शिल्प देखा गया था |

बोखारा गेट का नाम इस घटना के बाद अमरसिंह गेट पड़ गया | इस घटना के बाद यह दरवाजा शताब्दियों तक राजसी आदेश से बंद ही रहा | सन 1644 के बाद यह दरवाजा सन 1809 में केप्टन जिओ स्टील ने फिर से खोला और इस का जीर्णोद्धार करवाया | लोग कहते हैं कि दरवाजे के गिरने पर एक लम्बा भयानक काला सांप निकला था जिससे केप्टन स्टील भाग्य से बच गया |

आजकल अमरसिंह गेट से ही पर्यटक आगरा का किला देखने प्रवेश करते हैं |

डॉ आईदान सिंह जी भाटी की वॉल से साभार

18 जून की तपती धरा और आकाश के मध्य लड़ा गया था हल्दीघाटी का युद्ध आज पुण्य दिवस सभी महान वीरों को सादर वंदन ! ग्वालियर न...
18/06/2023

18 जून की तपती धरा और आकाश के मध्य लड़ा गया था हल्दीघाटी का युद्ध आज पुण्य दिवस सभी महान वीरों को सादर वंदन !

ग्वालियर नरेश राजा रामशाह तोमर (तँवर ) एवं उनके पुत्रो के बलिदान पर सादर नमन!

©️डाँ. महेन्द्रसिंह तँवर

मध्यभारत के प्रमुख राज्य ग्वालियर पर तोमरों ने 130 वर्ष तक राज किया था । राजा वीरसिंह देव से लेकर राजा विक्रमादित्य तक 9 पीढ़ियों ने ग्वालियर पर एक छत्र शासन किया ।

उनके गौरव मय इतिहास की कीर्ति पताका आज भी क़िले मे बने उनके स्मारक ओर रचित ग्रन्थों से जानी जा सकती हैं ।

राजा मानसिंह जी तो भारतीय इतिहास के विरले राजा थे जिन्होंने ग्वालियरी संगीत घराने को जन्म दिया जिस कारण महान संगीतज्ञ बिरजु ओर तानसेन निकले ।

राजा मानसिंह के योग्य पुत्र राजा विक्रमादित्य ने सात वर्षों तक लोदियों का मुक़ाबला किया एवं भारतमाता की रक्षा करते हुए पानीपत के युद्ध में बाबर से मुक़ाबला करते हुए रणक्षेत्र में वीरगति पाई।

राजा विक्रमादित्य के युवराज राजा रामशाह हुए । इन्होंने अपने जीवन काल मे हिंदुस्थान के 9 से अधिक बादशाह देखे और तीन मेवाड़ के महाराणा ।

अपने जीवन में सात वर्ष की अवस्था में पिता के वीरगति प्राप्त करने के पश्चात 1526 से 1558 तक चम्बल के बीहड़ -ऐसाहगढ़ में रहकर अपने खोए राज्य की प्राप्ति में लगे रहे ।

अंत में जब अकबर की सेना ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया तब अपने पाँच सौ योद्धाओ के साथ महाराणा उदयसिंह जी के पास मेवाड़ पहुँचे ।

मेवाड़ के अधिपति ने राजा रामशाह का भव्य स्वागत किया । मेवाड़ में रहते इन्हें बारीदासोंर ओर भेंसरोड़गढ़ की जागीर , प्रति दिवस 801 रुपए नित्य ख़र्च के देने का आदेश दिया ।

चितोड़ के 1567 के युद्ध में राजा रामशाह भी थे लेकिन उनके भाग्य में हल्दीघाटी में वीरगति पाना लिखा था , इसलिये महाराणा उदयसिंह जी अपने साथ इन्हें भी वहाँ से साथ लेकर निकल गये ।

महाराणा प्रताप के राज्यारोहण में इनकी विशेस भूमिका थी । जब हल्दीघाटी के युद्ध का बिगुल बजा तब सबसे पहले राणा प्रताप और सभी सामन्त गण इनके डेरे पर ही बैठक करने एकत्रित हुए थे ।

महाराणा इनका बहुत आदर करते थे जब राजा रामशाह ने पहाड़ों मे युद्ध करने कि सलाह दी तब मेवाड़ के वीरो ने इनका उपहास किया । युद्ध खुले मैदान में करने का निर्णय हुवा ।

मेवाड़ की फोज के हरावल पंक्ति में महाराणा स्वम ओर दक्षिणी पंक्ति में राजा रामशाह अपने तीनो पुत्रों व पाँच सौ वीरों के साथ लड़े । युद्ध का विकराल स्वरुप ओर उसमें लड़ने वाले वीरों की अदम्य शूरवीरता के किसे आज सभी के समुख हैं ।

राजा रामशाह अपने तीनो पुत्रों व तीन सौ वीरों के साथ रक्त तलाई में मेवाड़ की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये।
मेरा शोभाग्य हैं की में उनकी वंश परम्परा में 17 वें वंशधर होने का गौरव रखता हु । मेने इन पर शोध पूर्ण पुस्तक भी लिखने का प्रयास किया हैं ।

मेवाड़ के प्रसिद्ध इतिहासविद समाजसेवी सेवनिवृत्ति आई. ए. एस . श्री सज्जन सिंह जी राणावत साहेब का में ऋणी हु जिन्होंने मेरे शोध के समय मेरे पत्र के जवाब में लिखा था “ हम सब मेवाड़ वासी राजा रामशाह के नमक के चुकारे के अहसानमंद हैं “ मेने इस पत्र को पढ़ने के बाद इन भावो को समझा तब मुजे अपने पूर्वजों पर असीम गर्व हुवा ।

राजा रामशाह और उनको पुत्रों की वीरता पर लिखने से तो अल्बदायु भी अपनी लेखनी को रोक नहीं सका ।

हल्दीघाटी के युद्ध में दोनो ही पक्ष के योद्धाओं को अपने जीवन और प्राणो से बढ़कर मान- प्रतिष्ठा की चिन्ता थी

( Price of life was low , but the honour was high )

राजा रामशाह के ज्येष्ठ पुत्र युवराज शालिवाहन की राजकुमारी से महाराणा अमरसिंह जी का विवाह हुवा था जिनके गर्भ से महाराणा करण सिंह जी का जन्म हुवा ।

हल्दीघाटी युद्ध के अनेक वर्षों के बाद महाराणा करणसिंह जी ने अपने नाना के ऊपर खमनोर गाँव में छतरियाँ बनवाई जो राजा रामशाह के बलिदान की वीर गाथा का गुणगान करती हैं ।

447 वीं पुण्य तिथि पर हल्दीघाटी में हुए झुँझार उन सभी महान वीरों व पूर्वजों के बलिदान को सादर वन्दन नमन !

मान के मोती**********(सांस्कृतिक-झरोखा -  देपालदे )—————————————-देपालदे की कहानी सदियों पुरानी है |सिंध के उत्तरी शिरे ...
17/06/2023

मान के मोती
**********

(सांस्कृतिक-झरोखा - देपालदे )
—————————————-

देपालदे की कहानी सदियों पुरानी है |

सिंध के उत्तरी शिरे पर बसा शहर देपालदेपुर उनकी कीर्ति का साक्षी है .

यदुवंशी भाटी जब थार के रेगिस्तान में आए तब केहर के पुत्र राव तणु ने तणुकोट की स्थापना की, जिसे आज कल ‘तन्नौट’ नाम से पुकारा जाता है | इनके भाई कुँवर जाम की संतान ‘भाटिया’ नाम से ख्यातिप्राप्त व्यावसायी है| कहा भी गया है –

‘नख चौरासी भाटिया केहर रौ कुळ जाण |’

इसी राव तणु के एक राजकुमार जयतुंग के वंशज थे- देपालदे |

इस जयतुंग के वंशजों के बसाए गाँव-कस्बे थार में कोल्हासर, गिरिराजसर, नगरासर आदि नामों से आज भी ख्यात है |

देपालदे की राजधानी बीकमपुर थी, जो पहले पूगल और बाद में जैसलमेर रियासत में मिल गई थी | इन्ही देपालदे की उदारता और करुणा की यह कहानी लोक अत्यंत चाव से सदियों से एक दूसरे को सुनाता आ रहा है |

एक बार की बात है कि देपालदे अपने एक सैनिक के साथ अपनी प्रजा का हाल जानने निकले | वे दयालू प्रकृति के राजा थे | अभावग्रस्त की सहायता करतेथे | वे भेष बदल कर घूम रहे थे | वर्षा हो चुकी थी | किसान अपने खेतों में हल चला रहे थे | खुशनुमा माहौल था | देपालदे का मन-मयूर नाच उठा |

अचानक उनके सामने एक अजीबोगरीब नजारा आ खड़ा हुआ | एक किसान हल चला रहा था और एक तरफ बैल जुता था तथा दूसरी ओर एक बैल की जगह एक स्त्री हल में जुती हुई थी | देपालदे किसान के पास पहुंचे और नम्रता से किसान को इसका कारण पूछा| किसान उग्र स्वभाव का था | उसने देपालदे की तरफ टेडी नजर से देखा और हल चलाता रहा |

देपालदे ने पास जाकर उसे स्त्री को हल से अलग करने का कहा | किसान इस बार और उग्र होकर बोला – ‘मेरी पत्नी है, चाहे जैसे रखूंगा, तुझे दया आ रही है तो बैल लाकर दे दे | मेरे पास एक ही बैल है |’

देपालदे ने साथ के सैनिक को बैल लेकर आने को कहा | सैनिक चला गया पर किसान रुका नहीं, हल चलाता रहा| हल चलता ही नहीं रहा अपितु बैल के साथ ही साथ स्त्री को भी कौड़े मारने लगा | देपालदे से यह सब देखा नहीं गया , वे बोले –

‘भले आदमी रुक जा, मेरा आदमी बैल लेकर आ ही रहा है |’
किसान तो एक ही तरह का आदमी था |

आवेशित होकर बोला –

‘देख नहीं रहा है, मेरा खेत सूखा जा रहा है ? तुझे ज्यादा ही दया आ रही है तो तूं आकर हल में जुत जा |’

यह कह कर उसने फिर स्त्री पर कौड़ा फटकारा | देपालदे ने इस बार किसान को रोका और स्त्री की जगह खुद हल में जुत गए | किसान हल चलाता रहा | उसने एक दो कौड़े भी देपालदे पर फटकार दिए |

हल की दो ओड़ें ( बीज बोई लकीरें ) देपालदे ने पूरी की,तब तक उनका सैनिक बैल लेकर आ गया | देपालदे को किसान ने मुक्त कर दिया |
किसान की इस बार फसल भरपूर हुई | पूरा खेत बाजरी की बालियों से लद गया | उसकी ख़ुशी का पार नहीं रहा |

‘पर यह क्या हुआ?’ किसान सोच रहा था | जिन दो ओड़ों में देपालदे ने हल चलाया था, उस कतार की बालियों में एक भी दाना नहीं था | किसान ने फिर देपालदे को एक गाली दी –

‘ कैसा कर्महीन राजा था, जहां हल चलाया उन बालियों में दाना तक नहीं पड़ा |’

तब तक वह जान चुका था कि बैल दिलाने वाला व्यक्ति और कोई नहीं उस अंचल के राजा देपालदे थे | किसान सारी बालियाँ काटने के बाद पशुओं के चारे के लिए सूखी हुई घाड़ें ( डंठल ) काटने लगा |

सारे खेत की सफाई करने के बाद वह उन दो लकीरों के डंठलों के पास आया | उसके मन में राजा के प्रति अब भी रोष था | अनमना सा उन डंठलों को काटने लगा |

लोक आख्यानों की जुबान पर कथा है कि उन सूखी बालियों से मोती झरे | किसान उन मोतियों की गंठड़ी बाँध कर देपालदे के दरबार में पहुंचा |

किसान चारण था, कविता करने वाला | राजपूत राजाओं के दरबार में मान पाने वाला | देपालदे ने सम्मान पूर्वक कहा – ‘ आओ देवीपुत्र ! कैसे आना हुआ ?
चारण ने गंठड़ी दरबार में नीचे रखी और उसे खोला | दरबारियों की आँखें चौंधिया गई | झिलमिलाते मोती, आबदार मोती गंठड़ी में भरे पड़े थे | लोग कुछ समझते इससे पहले चारण किसान ने दोहा कहा –
‘जे जाणूं जिण बार, नग कण मोती नीपजै |
(तो) बातो वारो ही वार, देव तनै देपालदे ||’

( हे देवतुल्य देपालदे ! अगर में यह जानता कि तुम्हारे हल चलाने से मोतियों की फसल निपजेगी, तो मैं पूरे खेत में तुझसे ही हल चलवाता |)

यह दोहा आज भी लोग देपालदे के सम्मान में कहते हैं | समझदार कहते हैं कि किसान की भरपूर फसल हुई और खूब धन आया | इसलिए मोतियों की गंठड़ी भर गई | कवि कहते हैं कि देपालदे ने एक स्त्री का मान रखा इसलिए प्रतीक में उनके हल चलाने को ‘मान के मोती’ कहा | कारण जो भी हो एक करुणाशील राजा की इस कथा को लोक सदियों से दोहराता हुआ कहता है कि देपालदे ने जहां हल चलाया था ‘वहां मोती निपजे थे |’

DrAidansingh Bhati साहब की वॉल से साभार।

28/05/2023

Harmony among Castes in India| जातियों में सामाजिक सौहार्द
#चारण #राजपूत
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 #महाराणा_प्रताप_सिंहराणा प्रताप इतिहास के सबसे  ज्यादा गलत पढ़ाए जाने वाले क़िरदार है।राणा प्रताप अपने पिता राणा उदय सि...
17/05/2023

#महाराणा_प्रताप_सिंह

राणा प्रताप इतिहास के सबसे ज्यादा गलत पढ़ाए जाने वाले क़िरदार है।

राणा प्रताप अपने पिता राणा उदय सिंह की मृत्यु के बाद 1572 ई. में मेवाड़ के सिंहासन पर बैठे।

राणा उदय सिंह मृत्यु से पूर्व ही अपनी सबसे प्रिय रानी वीर कंवर भाटी के पुत्र जगमाल को उतराधिकारी घोषित कर चुके थे।

राणा की मृत्यु के बाद दाह संस्कार में शामिल लोगों की नजर जब प्रताप पर पड़ी तो सब चकित रह गए क्योंकि प्रथानुसार सबसे बड़ा पुत्र पिता के दाह संस्कार में शामिल नही होता है इसलिए कि उसे अगले ही क्षण राजा घोषित किया जाता है।

प्रताप को वहां पर देख उसके मामा अखेराज जी सोनगरा ने सलूंबर के कृष्णदास जी चुंडावत को पूछा कि प्रताप यहां क्यों आए है,इस पर वहां उपस्थित सारी जनता ने प्रताप को अगला राणा बनाने की बात की चूंकि सलूंबर को विशेषाधिकार था कि अगले राणा का चयन उन्ही के द्वारा ही किया जाएगा।

अतः गोगुंदा में ही राणा का राजतिलक कर दिया गया।

सर्वप्रथम यह जानना जरूरी है कि राणा प्रताप को राज्य बपौती में नहीं मिला था। राणा प्रताप इतने लोकप्रिय थे कि जनता ने अपने पूर्व राजा की अवज्ञा कर प्रताप का राजतिलक किया।

यह राजतंत्र में लोकतंत्र की स्थापना का पहला उदाहरण था।

उस दौरान दिल्ली की तख्त जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के पास थी,
अकबर, राणा प्रताप के राजतिलक से 4 साल पहले 1568ई. में ही चितौड़ में 30000 लोगों का कत्लेआम करवा चुका था।
मुगल बेहद महत्वाकांक्षी थे, वो पूरे भारत पर अधिकार चाहते थे, अपनी नाक के नीचे मेवाड़ कैसे स्वतंत्र छोड़ देते?

इस समय तक मुगल समझ चुके थे की, राजपूतों को युद्धों में नहीं हराया जा सकता है, उन्होंने सहयोग की नीति प्रारंभ की।
1568 ई. में वो चितौड़ पर कब्जा कर चुका थे फिर भी संधि नहीं हुई थी।

राणा प्रताप को समझाने अकबर ने चार दूत भेजे, सब बेरंग ही लौटे,तीसरे दूत आमेर राजा भगवंत दास थे। राणा प्रताप उनसे कहते है कि “आपके दादाजी पृथ्वीराज जी कच्छवाहा ,मेरे दादाजी राणा सांगा के नेतृत्व में खानवा में हमारे झंडे के नीचे बाबर से लड़े और मैं आपके झंडे के नीचे लड़ने को तैयार हूं पर मुगलों के नीचे नहीं।”

राणा प्रताप का मानना था कि देश की एकता के लिए एकजुटता जरूरी है तभी हम विदेशी आक्रांताओं से जीत पायेंगे।

सबसे बड़ा प्रोपेगैंडा फैलाया गया की राणा प्रताप अकेले थे। राणा अकेले नहीं उनके साथ-
बांसवाड़ा के प्रताप सिंह,
डूंगरपुर के आसकरण,
मारवाड़ के चंद्रसेन,
सिरोही के सुरतान,
ईडर के नारायण दास,
जालोर के ताज खां
सब प्रताप के साथ मिलकर अकबर से लड़ रहे थे।

अब राजपूतों की युद्धनीति बदल चुकी थी ,खानवा तक एक ही झंडे के नीचे लड़ रहे थे जिसमें हारने के चांसेज ज्यादा रहते थे,अब सब अपने अपने राज्य में मुगलों के खिलाफ लड़ रहे थे।

अकबर की सबसे बड़ी हार यह थी की, वो राणा प्रताप के समय में पूरे राजस्थान में एक भी युद्ध जीत नहीं पाया।

1581 ई. में चंद्रसेन अजमेर छीन लेते है।

1582 ई. दिवेर में पूरी सेना काट दी जाती है।

1583 ई. दत्तानी में सुरतान देवड़ा द्वारा पूरी मुगल फौज मार दी जाती है।

अकबर इतना डर गया की 1585 ई. के बाद राजस्थान पर एक भी अटैक नहीं किया।
राणा प्रताप की मृत्यू के तुरंत बाद 1597 ई. में राणा अमर सिंह पर आक्रमण किया।

राणा प्रताप की सबसे बड़ी जीत थी की उन्होंने अकबर को पूरी तरह से बांध दिया था।

मुगल सेना मेवाड़ पर आक्रमण करे तो उधर मारवाड़ विद्रोह कर देता है,मारवाड़ पर करें तो जालोर सिरोही विद्रोह कर देते है,इन पर करें तो ईडर विद्रोह कर देता है।इन सब ने मुगलों को उलझा के रख दिया था।

राणा प्रताप को युद्ध कौशल से ज्यादा समाज सुधारक और नैतिक चरित्र के लिए याद रखा जाना चाहिए।

जिस मध्यकाल में जाति व्यवस्था चरम पर थी, उस समय भील जनजाति मेवाड़ के संघर्ष में राणा के साथ साथ जंगलों में घूम रही थी,लुहार जाति प्रताप के साथ कसम खाती है और संघर्ष में साथ देती है,उस समय तक उदयपुर राजधानी हुआ करती थी, लुहार कहते है “राणाजी केवै वठे उदियापुर”। क्या आप मान सकते है कि जब प्रताप खुद जंगलों में संघर्ष कर रहे थे तब इन जातियों के साथ अस्पृश्यता की जाती होगी??

जिस समय पर महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं चरम पर थी तब राणा प्रताप दुश्मन की बेगमों को शेरपुर में सम्मान सहित वापिस लौटाते है इससे ज्यादा नैतिक मूल्य क्या होंगे?
मुगलों के सेनापति रहीम जी कहते है कि प्रताप को युगों युगों तक याद रखा जायेगा। जब प्रतिद्वंदी यह बात कहे इससे बड़ी जीत क्या ही होगी।

इतिहास में राणा उदयसिंह बहुत ही मिसअंडरस्टुड कैरेक्टर है कुछ इतिहासकार तो यहां तक लिखते है कि राणा सांगा और राणा प्रताप के बीच उदय सिंह नहीं आते तो मेवाड़ का इतिहास कुछ और ही होता।

राणा उदय सिंह ने ही राजपूतों की युद्ध नीति बदली थी, पहले सारे के सारे युद्ध किलो मे बैठ कर लड़े जाते थे जिसमें एक व्यक्ति द्वारा धोखा दिए जाने पर साका ही एकमात्र विकल्प रहता था,राणा उदय सिंह युद्ध को किले से बाहर निकल जंगल और पहाड़ों तक ले आए की अब पहाड़,जंगल घेर के दिखाओ।इसी कारण हम देखते है की राणा उदय सिंह के बाद साका कम ही हुए है।

इसी नीति और चल कर राणा प्रताप को इतनी अधिक सफलता मिली।

मध्यकाल में राणा प्रताप जैसा धर्मनिरपेक्ष राजा कोई नही था।

हाकम खां सुर हरावल में,
ताज खां जालोर साथ में,
नसीरुद्दीन चित्रकार राणा के दरबार में,
ताराचंद और भामाशाह जैन राणा के साथ साथ।

राणा प्रताप इस्लाम के खिलाफ नही बल्कि अकबर और मुगलों की सांप्रदायिक सोच के खिलाफ थे।वो कहते थे कि हम आपके धर्म को छेड़ेंगे नहीं अगर हमारे धर्म में छेड़छाड़ करोगे तो हम यूंही हिंदुआ सूरज नहीं कहलाते है।

अगर हल्दी घाटी की बात करे तो मुगलों की तरफ से इस युद्ध में बदायूंनी भी आया था।बदायूंनी कोई सेनापति नही बल्कि लेखक था। वो कट्टर मुसलमान था युद्ध में इसलिए आया था ताकि काफिरों का खून अपनी दाढ़ी में लगा सके। वो अपनी पुस्तक “मुंतख़ाब अत तवारीख़” में लिखता है कि राणा द्वारा गोगुंदा में शुरुआती हमला इतना भयानक था कि सेनाएं मीलों तक भागती रही,रात में जंगल जला दिए गए ताकि प्रताप पीछा ना कर पाए,गोगुंदा में दीवार चुना दी गई ताकि रात में राणा हमला ना कर दे। जीते हुए पक्ष में ऐसा भय ??

जून की गर्मी में मुगल सेना को अजमेर तक गांव गांव में भीलों द्वारा लूटा गया जीती हुई सेना को चंद लोग कैसे लूट सकते है??

आसफ खां और मान सिंह का दरबार में आने पर प्रतिबंध लगा दिया गया जीते हुए सेनानायक के साथ यह सुलूक क्यों??

जब हल्दी घाटी जून में अगर जीत गए थे तो अक्टूबर 1576ई. को पुनः अकबर द्वारा आक्रमण क्यों??

इसके बाद दिवेर में तो राणा प्रताप मुगलों की पूरी की पूरी फौज काट देते है, यह भारतीय इतिहास की पहली सर्जिकल स्ट्राइक थी।

अर्थात् हल्दी घाटी धर्म युद्ध नहीं बल्कि स्वाभिमान की लड़ाई थी।यह एक महत्वाकांक्षी, सांप्रदायिक सोच वाले और साम्राज्य विस्तारवादी अकबर के खिलाफ जनता और एक प्रादेशिक स्वतंत्र राजा का जन आंदोलन था।

राणा प्रताप के चरित्र से संघर्ष,राष्ट्रवाद और स्वाभिमान की सीख मिलती है।

भारत में पानीपत और तराइन में सबसे महत्वपूर्ण युद्ध हुए है जिसने भारत का पूरा भूगोल,संस्कृति सब बदल दिया, वो जगह कोई नही देखता, हल्दी घाटी को सबसे माथे पर लगाते है।यही राणा प्रताप के संघर्ष की जीत है।

राणा प्रताप को याद किया जाना चाहिए सांस्कृतिक उपलब्धियों के लिए जब प्रताप जंगलों में भटक रहे थे तब भी उन्होंने झालरा में नीलकंठ तालाब बनाया, इनके समय की चावंड चित्रशेली पूरे विश्व में प्रसिद्ध है।

राणा प्रताप अंतिम समय तक चितौड़ और मांडलगढ़ छोड़ इंच इंच जमीन वापिस ले चुके थे।

कितना दुर्भाग्य है कि ऐसा सेना नायक नाड़ी में खिंचाव के कारण वीरगति को प्राप्त हो गया।

जय एकलिंग जी की।
जय राणा प्रताप

#अखेराजोत

सौजन्य~विजयवर्धन सिंह हरसानी

08/05/2023

Rajput Wedding ceremony(Part-2)|newly wed couple enter to their home

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आमेर के भव्य राजमहलों के दक्षिण की ओर अरावली पर्वत श्रृंखला  के एक उच्च शिखर पर जयगढ़ का दुर्ग अवस्थित है.गिरी दुर्ग के ...
03/05/2023

आमेर के भव्य राजमहलों के दक्षिण की ओर अरावली पर्वत श्रृंखला के एक उच्च शिखर पर जयगढ़ का दुर्ग अवस्थित है.
गिरी दुर्ग के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में प्रतिष्ठित जयगढ़ की प्रमुख विशेषता यह है कि यह दुर्ग कई सदियों तक एक विचित्र रहस्य से महिमामंडित रहा है.
जयगढ़ दुर्ग में स्वतंत्रता प्राप्ति तक जयपुर के महाराजा तथा उनके द्वारा नियुक्त दो विश्वस्त किलेदार के अतिरिक्त किसी को भी प्रवेश की अनुमति नहीं थी.यहां तक कि जयपुर के महाराजा भी कथित दो में से एक के बिना दुर्ग में प्रवेश नहीं कर सकते थे.
जयगढ़ दुर्ग का निर्माण आमेर के यशस्वी शासक मिर्जा राजा जयसिंह प्रथम द्वारा करवाया गया था, जो आज भी दुर्ग स्थापत्य कला की दृष्टि से अद्वितीय है.

यहां इस तथ्य को रेखांकित करना प्रासंगिक होगा कि महान मराठा क्षत्रप शिवाजी को 11 जून, 1665 ईस्वी को पुरंदर की संधि, जो मुगल सम्राट औरंगजेब एवं छत्रपति शिवाजी के मध्य हुई थी, करने के लिए मिर्जा राजा जयसिंह प्रथम ने ही विवश किया था.
मो.इकबाल
Itihas पेज के सौजन्य से

30/04/2023

Why Hindus feed Monkeys and Pigeon in Jaipur?

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29/04/2023

Palace of Winds(Hawamahal)- a palace built without foundation

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