25/09/2024
"अरे दुल्हन के मम्मी-पापा कहां हैं? उन्हें भी स्टेज पर बुलाओ! सबके फोटो हो गए हैं, बस दुल्हन के माता-पिता बाकी हैं।"
मैं एक कैमरामैन था और जयमाला के स्टेज पर सबके फोटो क्लिक कर रहा था। दूल्हा जितना खूबसूरत था, उससे कहीं ज्यादा सुंदर दुल्हन लग रही थी। नजरें झुकाए उस दुल्हन को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वह एक गरीब परिवार की बेटी है, जिसके पिता ने अपने जीवन की सबसे बड़ी दौलत आज कन्यादान में दे दी थी। वह किसी राजकुमारी से कम नहीं लग रही थी।
पंडित जी के जोर से कहने पर सभी की नजरें दुल्हन के मम्मी-पापा को ढूंढने लगीं। दुल्हन के पिता, रमेश, मेहमानों के आगे हाथ जोड़े खड़े थे, सबको खाना खिलाने में लगे थे। वे बार-बार पूछ रहे थे, "भाई साहब, खाना कैसा बना? कोई कमी हो तो माफ कर देना।" समाज का नियम है कि "लड़की वाले" का सर पूरी शादी के दौरान झुका रहना चाहिए, इसलिए रमेश जी हर मेहमान की सेवा में जुटे हुए थे।
लड़के के दोस्त रमेश जी के कंधे पर हाथ रखकर बोले, "बाबूजी, चलिए, आपको फोटो खिंचवानी है।" उधर, सिया, दुल्हन की मां, जो अगले कार्यक्रम की तैयारियों में लगी थीं, को उनकी बेटी निशा स्टेज पर ले आई।
जैसे ही मैंने कैमरा सेट किया और फोटो क्लिक करने के लिए तैयार हुआ, मेरी नजर रमेश जी पर पड़ी। सिया उनसे पैसे मांग रही थीं, जो रस्म के तहत दूल्हे पर न्योछावर करने के लिए दिए जाते हैं। रमेश जी ने अपनी जेब से दो पचास के नोट निकाले, एक अपने पास रखा और दूसरा सिया को थमा दिया।
रमेश जी दूल्हे के पीछे खड़े थे, और सिया दुल्हन के पीछे। "स्माइल" कहते ही मैंने फोटो क्लिक की। लेकिन जैसे ही मैंने कैमरा हटाया, मैंने देखा कि रमेश जी की आंखों से आंसू बह रहे थे। उनके हाथ कांप रहे थे, और नजरें समधी की तरफ थीं। दोनों हाथ जोड़े, वह समधी से कहना चाहते थे, "मेरी बेटी से कोई गलती हो जाए तो माफ कर देना, ये तो मेरी फूल जैसी बच्ची है।"
रमेश जी की उम्र लगभग 55 साल थी और सिया की 53 साल। यह उनकी इकलौती बेटी निशा की शादी थी, और आज उनकी ज़िम्मेदारी पूरी हो गई थी। जैसे ही यह ख्याल मेरे दिमाग में आया, मेरी भी आंखें भर आईं। आखिर, कैसी होती है एक बेटी के माता-पिता की किस्मत, जो संतान होते हुए भी अकेले जीवन बिताने को मजबूर हो जाते हैं।
जब मैंने रमेश जी की स्थिति के बारे में जानने की कोशिश की, तो पता चला कि उनके पास सिर्फ चार बीघा जमीन थी, जिसे उन्होंने दामाद को मोटरसाइकिल देने के लिए दो साल के लिए ठेके पर चढ़ा दिया था। ताकि उनकी बेटी निशा को ससुराल में कोई परेशानी न हो। सिया ने उधार लेकर अपनी बेटी के लिए जेवर बनवाए थे, अपने पुराने गहनों को मिलाकर।
बारात खुशी से झूमती रही, लेकिन शायद ही किसी ने यह ध्यान दिया कि रमेश जी और सिया किस हाल में थे। जब रात में निशा ने अपने पापा को बुलाकर कहा, "पापा, आपने अभी तक खाना नहीं खाया होगा, आओ पास बैठो," तब रमेश जी का रुंधा हुआ गला और भावनाओं का ज्वार फुट पड़ा। उस पल का दर्द शब्दों में नहीं लिखा जा सकता।
आज तो निशा ने अपने पापा को खाना खाने बुलाया, लेकिन कल से वह आंगन सूना हो जाएगा। एक कोने में बूढ़े रमेश जी होंगे, और दूसरे कोने में सिया अपनी बेटी की बचपन की उछल-कूद को याद करती रहेंगी।
बारात तो किसी के लिए एक उत्सव होता है, लेकिन उस पिता के लिए यह क्या था, मुझे नहीं पता। जब शादी तय हुई थी, रमेश जी ने पूरे मोहल्ले में मोतीचूर के लड्डू बांटे थे। और उसी दिन से पैसे जोड़ने की तैयारी शुरू कर दी थी। लेकिन अब? बुढ़ापे के दिन कैसे कटेंगे, इस सवाल का कोई जवाब नहीं था।
दो महीने बाद पता चला कि दामाद और निशा रमेश जी और सिया को अपने साथ विदेश ले गए, और उनका घर खाली रह गया। एक दिन मैं फिर उस घर गया। वहां एक खूंटी पर निशा की दो साल की उम्र की एक फ्रॉक टंगी थी। शायद वह फ्रॉक निशा की आखिरी निशानी थी, जिसे देख-देखकर रमेश जी और सिया ने दो महीने गुजारे थे। अब वह फ्रॉक भी खाली घर के हवाले कर दी गई थी, और उनकी बेटी विदेश चली गई थी।
यह कहानी सिर्फ उस पिता की नहीं है, बल्कि हर उस माता-पिता की है जो अपनी बेटी को विदा कर देते हैं।