09/09/2019
ऐसा लगता है मुद्दत हुई ख़ुद से मुलाकात हुए,
ऊंचे पहाड़, और चीड देवदार से बात हुए।
एक अरसा बीत गया,
मेरे पहाड़ तेरी मिट्टी को छुए हुए।
मुझे याद है, गांव से ये कह कर निकला था,
कि क्या रक्खा है मां तेरे इस पहाड़ में,
उबड़ खाबड़ रास्तों में,
इस पत्थर के पुराने मकान में।
मैं बस शहर की तरफ ऐसे खिचां आया,
जैसे चुमंबक की तरफ लोहा खिंचा जाए।
सपनों में जीना था, या झूठे सपनों को जीना था,
आज भी समझ नहीं पाया।
शायद उड़ना जो था आधुनिकता की उड़ान में।
सुना था शहर सबको अपना लेते हैं,
मगर ये नहीं सुना था कि शहर सपना भी चुरा लेते है।
एक नई पहचान बनाने निकला था,
मगर देखा यहां भीड़ बहुत है, इंसान ही गुम हैं।
मेरे पहाड़ मैं तुझसे मीलों दूर तो निकल आया,
मगर एक दिन भी भूल नहीं पाया।
तेरे हरे भरे जंगल और घास के मैदान,
सांय सांय कर तुझमें से बहती वो हवा,
नहीं भूल पाया मैं,
ऊंचे पेड़ों पर लाल मोती से लगे वो रसीले काफल,
सुर्ख लाल किलमोडी का रंग,
और वो नारंगी पीले हिसालू का स्वाद।
अखरोट के छिलकों का वो रंग भी बहुत अच्छी तरह याद है,
जो हाथों पर चढ़ जाता था और तब बहुत चिढ़ होती थी मुझे।
आज कई बार हथेली देखता हूँ।
हर बार बरसात के बाद,
तेरे मिट्टी की सौंधी खुशबू ,
अब ख्यालों में महसूस करता हूं।
कुछ नहीं भूला पाया,
बुरांस, फ्योंली का खिलना।
बर्फ की सफेद चादर लपेटे,
तेरा चांदी सा चमकना।
कहीं दूर किसी ग्वाले का गाय बकरियों को आवाज देना,
और कभी अपनी ही धुन में उसका वो मुरली बजाना।
हर चार कदम पर गधेरे और धारों का मिलना।
पहाड़ की तलहटी पर,
पत्थरों से बना मेरा छोटा सा घर,
घर के चुल्हे का वो स्वाद,
झूंगर, मंडवा, गहत, बड़ी, भात।
सब कुछ था वरदान सा पाया,
शहर की भूलभुलैया में कितना कुछ गंवाया।
कहा था, मां ने मुझसे,
कि हम पहाड़ी हैं,
हम पहाड़ को भले ही छोड़ दें,
मगर ये पहाड़ हमें कभी नहीं छोड़ सकते।
सच कहा था,
ऐ मेरे पहाड़,
तूने मुझे कभी नहीं छोड़ा।।
credit: Durga Rawat