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भारत का आखिरी गांव 'माणा', स्वर्ग से कम नहीं है यहां का नजारा....इस बार हमनें  उत्तराखंड के प्रसिद्ध चारधाम यात्रा के प्...
30/01/2023

भारत का आखिरी गांव 'माणा', स्वर्ग से कम नहीं है यहां का नजारा....

इस बार हमनें उत्तराखंड के प्रसिद्ध चारधाम यात्रा के प्रमुख दो धामों श्री केदारनाथ जी एवं श्री बद्रीनाथ जी की यात्रा की । अत्यंत ही मनमोहक व आध्यात्मिक ऊर्जा से परिपूर्ण यात्रा थी यह । इन दो धामों के बारे में कतिपय
आप सभी लोग जानते होंगे और इनके बारे में विस्तृत साहित्य भी उपलब्ध है
अतः पाठकों इस बार मैं आपको ले चलूँगा एक अद्भुत यात्रा पर जो है भारत का आखिरी गाँव और इस स्थल की खोज वस्तुतः इसी यात्रा की देन है ।

क्या अपने कभी विचार किया है की भारत का आखरी गांव कौन सा है ? वहाँ का जीवन कैसा है ? इतना ही नहीं भारत के इस अंतिम गांव से सीधा स्वर्ग के लिए रास्ता जाता है। तो चलिए जानते हैं भारत के इस अनोखे और अंतिम गांव के बारे में –

दरसअल हम बात कर रहे है भारत के आखिरी गांव माणा के बारे में जिसे देखने के लिए न केवल देसी पर्यटक बल्कि विदेशी पर्यटक भी खूब पहुंचते है। इस गांव का पौराणिक नाम मणिभद्र है। माणा गांव अपनी सांस्कृतिक विरासत के साथ-साथ कई अन्य कारणों की वजह से भी मशहूर है। उत्तराखंड के चमोली जिले में भारत का आखिरी गांव है, जिसे माणा गांव के नाम से जाना जाता है। यह गांव चीन की सीमा से कुछ ही दूरी पर है। यहां का इतिहास महाभारत काल के समय से जुड़ा है।

उत्तराखंड के चमोली जिले में जब आप बद्रीनाथ (Badrinath) से भी तीन किलोमीटर की ऊंचाई पर जाएंगे तो आपको एक गांव मिलेगा, इस गांव को माणा गांव (Mana Village) के नाम से जाना जाता है । ये गांव चीन की सीमा से लगा हुआ है और भारत का आखिरी गांव है।

माणा गांव हिमालय की खूबसूरत पहाड़ियों से घिरा हुआ है और समुद्र तल से करीब 10,135 फुट की ऊंचाई पर बसा हुआ है । भारत और तिब्बत की सीमा से लगे इस गांव में रडंपा जाति के लोग रहते हैं । इस गांव के बारे में पहले लोग बहुत कम जानते थे लेकिन पक्की सड़कें बनने के बाद हर कोई इसके बारे में जानता है। इस गांव के आसपास कई देखने लायक पर्यटक स्थल मौजूद हैं। यहां सरस्वती नदी और अलकनंदा नदियों का भी संगम देखने को मिलता है। साथ ही यहां कई प्राचीन मंदिर और गुफाएं भी हैं, जिन्हें देखने के लिए पर्यटकों की भीड़ रहती है।

माणा गांव का इतिहास महाभारत के समय से जुड़ा हुआ है । कहा जाता है कि पांडव इसी रास्ते से स्वर्ग की ओर गए थे । जब पांडव इस गांव से होते हुए स्वर्ग जा रहे थे तो उन्होंने यहां मौजूद सरस्वती नदी से रास्ता मांगा था, लेकिन सरस्वती नदी ने उन्हें रास्ता नहीं दिया । इसके बाद महाबली भीम ने दो बड़ी-बड़ी चट्टानों को उठाकर नदी के ऊपर रखकर अपने लिए रास्ता बनाया और इस पुल को पार करके वे आगे बढ़े, इसी पुल को भीम पुल कहा जाता है ।

यहां पर अधिकतर मकान लकड़ी से बने हुए हैं । गाँव में घूमते हुए मैंने यह महसूस किया की वहाँ बुजुर्गों की संख्या ज्यादा थी । स्थानीय लोगों से पूछने पर यह पता चला की अधिकतर नौजवान परिवार सहित रोजगार की तलाश में शहरों में जा बसे हैं ।

यहीं पर एक दुकान भी है, जहां पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ है ‘हिंदुस्तान की आखिरी दुकान। उत्तराखंड (Uttrakhand) घूमने आने वाले लोग जब भी बद्रीनाथ धाम जाते हैं तो माणा गांव जरूर घूमते हैं ।

माणा गाँव के कुछ पर्यटक स्थल :-

- सरस्वती नदी

सरस्वती नदी बेशक विलुप्त हो चुकी है, लेकिन आपको माणा गांव में आज भी इसके दर्शन हो जाएंगे । यहां गांव के अंतिम छोर पर चट्टानों के बीच से एक झरना गिरता हुआ दिखाई देता है जिसका पानी कुछ दूर जाकर अलकनंदा नदी में मिलता है । इसे सरस्वती नदी का उद्गम स्थल माना जाता है ।

- व्यास गुफा

व्यास गुफा के बारे में बताया जाता है कि महर्षि वेद व्यास ने यहां वेद, पुराण और महाभारत की रचना की थी और भगवान गणेश उनके लेखक बने थे। ऐसी मान्यता है कि व्यास जी इसी गुफा में रहते थे। वर्तमान में इस गुफा में व्यास जी का मंदिर बना हुआ है।

- भीम पुल

माणा गांव का इतिहास महाभारत के समय से जुड़ा हुआ है । कहा जाता है कि पांडव इसी रास्ते से स्वर्ग की ओर गए थे । जब पांडव इस गांव से होते हुए स्वर्ग जा रहे थे तो उन्होंने यहां मौजूद सरस्वती नदी से रास्ता मांगा था, लेकिन सरस्वती नदी ने उन्हें रास्ता नहीं दिया । इसके बाद महाबली भीम ने दो बड़ी-बड़ी चट्टानों को उठाकर नदी के ऊपर रखकर अपने लिए रास्ता बनाया और इस पुल को पार करके वे आगे बढ़े, इसी पुल को भीम पुल कहा जाता है ।

माणा गांव जड़ीबूटियों के लिए भी प्रसिद्ध है. कहा जाता है कि यहां मिलने वाली सभी जड़ी-बूटियां सेहत के लिहाज से बहुत लाभकारी हैं। इसके अलावा ये भी कहा जाता है कि जो भी व्यक्ति इस गांव में आता है, उसकी गरीबी दूर हो जाती है मई से अक्टूबर महीने के बीच यहां बड़ी संख्या में टूरिस्ट आते हैं। माणा गांव आने का यह समय सबसे बेस्ट माना जाता है। छह महीने तक यहां खासी चहल-पहल रहती है। बदरीनाथ धाम के कपाट बंद हो जाने पर यहां पर आवाजाही बंद हो जाती है।

ऐसे पहुंचे माणा गांव

- हरिद्वार और ऋषिकेश से माणा गांव तक एनएच 58 के जरिए आसानी से पहुंचा जा सकता है। बद्रीनाथ धाम से करीब तीन किलोमीटर की ऊंचाई पर यह गाँव स्थित है ।
- यहां से सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन हरिद्वार में है, जो यहां से 275 किमी है।
- यहां से आप उत्तराखंड रोडवेज बस या टैक्सी के जरिए माणा गांव पहुंच सकते हैं।

पाठकों मेरे पिछले लेखों के लिए आपके द्वारा मिले अपार प्रेम के लिए आप सभी का आभार । मेरा प्रयास रहेगा की इसी प्रकार आप के लिए नए लेखों का सृजन करता रहूँ ।
आप इस लेख को https://insightstatement.blogspot.com/ पर भी पढ़ सकते हैं ।

संतोष चौबे

चित्रकूट धाम जहां कंण – कंण में बसते हैं राम.. पाठकों नमस्कार । वाउ इंडिया का पिछला लेख जो की रामेश्वरम धाम से संबन्धित ...
19/05/2022

चित्रकूट धाम जहां कंण – कंण में बसते हैं राम..

पाठकों नमस्कार । वाउ इंडिया का पिछला लेख जो की रामेश्वरम धाम से संबन्धित था, को आप सब ने पसंद किया एवं बहुत सराहा । इस प्रोत्साहन के लिए आप सब का हृदय से आभार । मैं आप लोगों को अभी केवल उन्ही पर्यटक अथवा तीर्थ स्थलों से अवगत कराने का प्रयास कर रहा हूँ जहां मैंने स्वयं जाकर वहां के महत्व को जाना है।

मित्रों इस बार बारी है भारत के एक प्राचीन तीर्थस्थल की जिसका नाम है चित्रकूट धाम । चित्रकूट धाम उत्तरप्रदेश में मन्दाकिनी नदी के किनारे एवं विंध्याचल पर्वत श्रंखलाओं के उत्तर में स्थित एक पवित्र तीर्थ स्थल है । रामायण के अनुसार अपने चौदह वर्ष के वनवास काल में ग्यारह वर्षों तक यह भगवान राम, उनकी पत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण का निवास स्थान था। यही वह जगह है, जहां श्री राम जी , ऋषि अत्री और सती अनसूया के संपर्क में आए थे। असंख्य मंदिरों और तीर्थों के साथ प्रकृति शांति व सुंदरता में लिपटा हुआ यह क्षेत्र अत्यंत मनमोहक है।

चित्रकूट एक प्राकृतिक स्थान है जो प्राकृतिक दृश्यों के साथ साथ अपने आध्यात्मिक महत्त्व के लिए भी प्रसिद्ध है। एक पर्यटक यहाँ के खूबसूरत झरने, चंचल हिरण, बंदरों एवं लंगूरों के झुंड और नाचते मोरों को देखकर रोमांचित होता है, तो एक तीर्थयात्री मन्दाकिनी में डुबकी लगाकर और कामदगिरी की धूल को माथे पर लगाकर अभिभूत हो जाता है।

तो आइये चलते हैं और जानते हैं की वे कौन से प्रमुख स्थान हैं जो चित्रकूट को एक पवित्र तीर्थ स्थली बनाते है –

कामदगिरी -

कामदगिरी चित्रकूट धाम का मुख्य पवित्र स्थान है। संस्कृत शब्द ‘कामदगिरी’ का अर्थ ऐसा पर्वत है, जो सभी इच्छाओं और कामनाओं को पूरा करता है। माना जाता है कि यह स्थान अपने वनवास काल के दौरान भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण जी का निवास स्थल रहा है। उनके नामों में से एक भगवान कामतानाथ, न केवल कामदगिरी पर्वत के बल्कि पूरे चित्रकूट के प्रमुख देवता हैं। धार्मिक मान्यता है कि यहाँ के सभी पवित्र तीर्थ इस परिक्रमा स्थल में स्थित हैं। इस पहाड़ी के चारों ओर का परिक्रमा पथ लगभग 5 किमी लंबा है जिसमें बड़ी संख्या में मंदिर हैं। ग्रीष्म ऋतु के अलावा, पूरे वर्ष इस पहाड़ी का रंग हरा रहता है और चित्रकूट में किसी भी स्थान से देखे जाने पर धनुषाकार दिखाई देता है।

गुप्त गोदावरी -

मित्रों यह वह जगह है जहां मैं सबसे ज्यादा रोमांचित हुआ । प्राचीन चट्टानों से घिरा हुआ संकरा सा लंबा मार्ग और उसमें बहती हुई एक छोटी सी नदी, इस नदी का स्रोत अथाह था। जब मैं उस गुफा में अंदर चला तो घुटने से थोड़ा उपर तक ठंडा पानी और उसमें तैरती मछलियाँ थी, मन में जिज्ञासा और आनंद के भाव थे । यह संकरा मार्ग आगे से कुछ घूमकर राम दरबार में खुलता है । गुफा में दो प्राकृतिक सिंहासन रुपी चट्टानें हैं, मान्यता है कि भगवान राम और उनके भाई लक्ष्मण ने यहां दरबार लगाया था।

हनुमान धारा -

यह स्थल राम घाट से 4 किलोमीटर दुर है | कहा जाता है की जब हनुमानजी ने लंका में अपनी पूँछ से आग लगाई थी तब उनकी पूँछ पर भी बहुत जलन हो रही थी | रामराज्य में भगवान श्री राम से हनुमानजी ने विनती की जिससे अपनी जली हुई पूँछ का इलाज हो सके | तब श्री राम ने अपने बाण के प्रहार से इसी जगह पर एक पवित्र धारा बनाई जो हनुमान धारा के नाम से प्रसिद्ध है |
यह स्थान पर्वतमाला के मध्यभाग में स्थित है। पहाड़ के सहारे हनुमानजी की एक विशाल मूर्ति के ठीक सिर पर दो जल के कुंड हैं, जो हमेशा जल से भरे रहते हैं और उनमें से निरंतर पानी बहता रहता है। मूर्ति के सामने तालाब में झरने से पानी गिरता है। इस धारा का जल हनुमानजी को स्पर्श करता हुआ बहता है। इसीलिए इसे हनुमान धारा कहते हैं। यहां 12 महीनें भक्तों का आना जाना लगता रहता है।

सती अनुसुईया मंदिर -

अत्री मुनि, उनकी पत्नी अनुसुईया और उनके तीन बेटों ने यहाँ ध्यान एवं तप किया। अनुसुईया के नाम पर एक आश्रम यहां स्थित है। यह माना जाता है कि मंदाकिनी नदी, सती अनुसूया के ध्यान के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई है। यही मन्दाकिनी नदी का उद्गम स्थल भी है ।

स्फटिक शीला -

कहा जाता है कि इसी स्फटिक शिला पर प्रभु श्री राम एवं माता सीता विश्राम किया करते थे। माता सीता ने प्रभु श्री राम के साथ ज्यादातर समय इसी शिला पर व्यतीत किया है। इस शिला पर माता सीता के चरण चिन्ह अभी भी दर्शन के लिए मिल जाते हैं। प्रभु श्री राम ने इसी शिला पर बैठकर तिनके से धनुष बाण बनाया था, उसके चिन्ह भी दिखाई देते हैं। देवताओं के राजा इंद्र का पुत्र जयंत जो कौवे के रूप में यहां आया था, उसकी चौंच का चिन्ह भी यहां बताया जाता है।

जानकी कुंड -

जानकी कुंड का एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। यहां पर जानकी माता के प्राचीन चरण देखने के लिए मिलते हैं, जो एक चट्टान पर उभरे हुए हैं। यहां पर मंदाकिनी नदी का सुंदर दृश्य देखने के लिए मिलता है। मंदाकिनी नदी पर यहां पर कुंड बने हुए हैं, जहां पर सीता माता स्नान किया करती थीं । इसलिए इस जगह को जानकीकुंड कहा जाता है।

भरत कूप -

मुक्ति प्राप्त करने के लिए, चित्रकूट की तीर्थयात्रा इस पवित्र पूजा स्थल की यात्रा के बिना अधूरी है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान राम को अयोध्या के राजा के रूप में अभिषेक करने के लिए, उनके भाई भरत ने सभी पवित्र तीर्थों के जल को एकत्रित किया। ऋषि अत्री की सलाह पर, यह पवित्र जल बाद में इस कुँए में
डाल दिया गया जिसे भरत कूप के नाम से जाना जाने लगा ।

राजापुर -

चित्रकूट धाम रेलवे स्टेशन से 38 किमी दूर है। गोस्वामी तुलसीदास का जन्मस्थान, जिन्होंने विश्व प्रसिद्ध श्री रामचरित मानस की रचना की थी। चित्रकूट से 42 किमी दूर, यह स्थान गोस्वामी तुलसीदास का जन्मस्थान माना जाता है। एक तुलसी मंदिर यहां स्थित है।

गणेशबाग -

रेलवे स्टेशन से लगभग 5 किमी दूर बांके सिद्धपुर गांव के निकट कर्वी-देवंगाना रोड पर, गणेशबाग स्थित है, जहां एक बड़ा नक्काशीदार मंदिर, सात मंजिला बावली और एक आवासीय महल के अवशेष अभी भी मौजूद हैं। परिसर को पेशवा विनायक राव ने गर्मियों के प्रवास के लिए बनावाया था। इसे मिनी-खजुराहो के रूप में भी जाना जाता है।

प्रतिदिन मन्दाकिनी नदी स्थित रामघाट पर संध्या आरती होती है, यह आरती बड़ी ही मनमोहक एवं सम्मोहित करने वाली होती है, और यदि आप एक नाव में बैठकर जैसा की मैंने किया था आरती का आनंद लें तब तो सोने पे सुहागा ही हो जाएगा ।
मित्रों आप विश्वास कीजिये मन्दाकिनी नदी की लहरों पर नाव में बैठे-बैठे आरती का यह आनंद आप जीवन भर भुला नहीं पाएंगे । यदि आप इस आरती में सम्मिलित नहीं हुए तो मानो आपने चित्रकूट में कुछ बहुत विशेष छोड़ दिया । संध्या आरती के बाद – उत्तर प्रदेश पर्यटन द्वारा द्वारा मन्दाकिनी नदी पर लेज़र शो और 30 मिनट की भगवान राम पर आधारित एक फिल्म दिखाई जाती है। जो यहाँ पँहुचे तीर्थयात्रियों के अनुभव को और भी सुंदर बनाती है।

मित्रों यदि आप वीकेंड में कम समय और कम बजट में कोई पर्यटक स्थल घूमना चाहें जो धार्मिक दृष्टि से भी उत्तम हो तो यह जगह आपके लिए उचित है ।

चित्रकूट घूमने जाने का उचित समय –

प्राय यहाँ भी गर्मियों मे तापमान ज्यादा रहता है अतः बारिश के मौसम में अथवा अक्टूबर से लेकर फरवरी तक का मौसम यहाँ घूमने की दृष्टि से अच्छा रहता है ।

कैसे पहुंचें

रेल मार्ग द्वारा –
चित्रकूट के मुख्य मुख्य रेलवे स्टेशन का नाम कर्वी है, यह रेलवे स्टेशन देश के सभी प्रसिद्ध शहरों से जुड़ा हुआ है।


सड़क मार्ग द्वारा –
चित्रकूट जिला राष्ट्रीय राजमार्ग और अन्य सड़क मार्ग सहित सभी प्रसिद्ध शहरों से जुड़ा हुआ है।


वायु मार्ग द्वारा -
यहाँ से सबसे नजदीक का हवाई अड्डा प्रयागराज में स्थित है जिसकी दूरी करीब 106 किलोमीटर है । एक अन्य विकल्प खजुराहो हवाई अड्डा है जो चित्रकूट से 167.7 किमी दूर है। दोनों हवाई अड्डों से दिल्ली के लिए दैनिक उड़ान सेवाएं हैं।

पाठकों मेरे पिछले लेखों के लिए आपके द्वारा मिले अपार प्रेम के लिए आप सभी का आभार । मेरा प्रयास रहेगा की इसी प्रकार आप के लिए नए लेखों का सृजन करता रहूँ ।
आप इस लेख को https://insightstatement.blogspot.com/ पर भी पढ़ सकते हैं ।

संतोष चौबे

रामेश्वरम ! सुदूर दक्षिण की वह जगह जहां असीम शांति का अनुभव होता है .....  सुदूर दक्षिण भारत की एक जगह जो रामेश्वरम के न...
22/02/2022

रामेश्वरम ! सुदूर दक्षिण की वह जगह जहां असीम शांति का अनुभव होता है .....


सुदूर दक्षिण भारत की एक जगह जो रामेश्वरम के नाम से प्रसिद्ध है भारत के तमिलनाडू राज्य में स्थित है । यह एक द्वीप है जिसे पांबन द्वीप भी कहा जाता है। यह द्वीप भारत की मुख्य भूमि से अलग है एवं पांबन सेतु के द्वारा भारत की मुख्य भूमि से जुड़ा है। सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार यह तीर्थ चार धामों में से एक है जहाँ प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु आते हैं । यहाँ की शांति व आध्यात्मिकता का माहौल आपको मंत्रमुग्ध कर देगा।

रामेश्वरम वर्ष में कभी भी आया जा सकता है, पर सबसे उचित समय है अक्टूबर से अप्रैल के दौरान। भारत के उत्तर में जो काशी की मान्यता है वही दक्षिण में इस तीर्थ स्थल की है ।

महर्षि वाल्मीकि रामायण के अनुसार इस मंदिर के शिवलिंग का निर्माण उस समय हुआ जब श्रीराम लंका के राजा रावण से युद्ध की तैयारी कर रहे थे। युद्ध से पूर्व श्रीराम जी ने उनके आराध्य, भगवान शंकर की उपासना के लिए वहाँ समुद्र के किनारे रेत से शिवलिंग का निर्माण किया । श्रीराम जी द्वारा की गयी उपासना एवं पूजा अर्चना से प्रसन्न हो कर शिवजी ने उन्हे युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद प्रदान किया । जब श्रीराम जी ने उनसे यहाँ ज्योतिर्लिंग के रूप में वास करने की प्रार्थना की तो शिवजी ने इसे स्वीकार कर लिया, तभी से रामेश्वरम में यह रामनाथस्वामी ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित है । मंदिर के गर्भगृह में दो शिव लिंग हैं, एक श्रीराम जी द्वारा रेत से निर्मित जिन्हें कि मुख्य शिवलिंग माना जाता है और इन्हें रामलिंगम नाम दिया गया, जबकि दूसरा शिवलिंग हनुमान जी द्वारा कैलाश पर्वत से लाया गया, जिसे विश्वलिंगम के नाम से जाना जाता है। भगवान राम के आदेशानुसार हनुमान जी द्वारा लाए गए शिवलिंग अर्थात् विश्वलिंगम की पूजा आज भी सबसे पहले की जाती है।

रामेश्वरम मंदिर अपने गलियारों के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है । इस मंदिर में लगभग 22 कुएं है जिन्हें तीर्थ सन्नानम कहा जाता है । मुख्य शिवलिंग के दर्शन से पहले इन सभी 22 कुओं के पवित्र जल से स्नान करना आवश्यक होता है, जिसकी शुरुआत अग्नितीर्थम से की जाती है । अग्नितीर्थम समुद्र का वह वह स्नान घाट है जो मुख्य मंदिर से केवल कुछ कदमों की दूरी पर ही है ।

पाठकों इन 22 कुओं के पवित्र जल से स्नान करने का एक अपना ही आध्यात्मिक आनंद है जिसे यहाँ पढ़कर नहीं अपितु वहाँ जा कर ही प्राप्त किया जा सकता है । मैंने प्रथम बार सन 2012 में अपने परिवार सहित वहाँ की यात्रा की थी । मंदिर के ही एक पुजारी ने मंदिर प्रांगड़ में स्थित इन 22 कुओं से स्नान करने में हमारी सहायता की । पुजारी जी आगे-आगे चलते एवं हम पीछे-पीछे, क्रम से हर एक कुएं पर पहुँच कर पुजारी जी बाल्टी डालकर कुएं से जल निकालते एवं हमारे ऊपर गिरा देते । यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक सभी 22 कुओं से स्नान नहीं हो गया । इस पूरे क्रम में करीब एक घंटे का समय लगा तत्पश्चात हम सभी ने मुख्य शिवलिंग के दर्शन किए । यहाँ प्राप्त हुई अनुभूतियाँ अविस्मरणीय हैं, और इन्ही अनुभूतियों ने मुझे यहाँ दुबारा जाने पर विवश कर दिया ।

वैसे तो पूरे रामेश्वरम में जगह-जगह रामायण कालीन स्थल मिलेंगे जो श्रीराम जी की कहानी से संबंध रखते हैं जैसे किसी जगह पर राम जी ने सीता जी की प्यास बुझाने के लिए धनुष की नोंक से कुआं खोदा था, तो कहीं पर उन्होंने सेनानायकों से सलाह की थी, कहीं पर सीताजी ने अग्नि-प्रवेश किया था तो किसी अन्य स्थान पर श्रीराम ने जटाओं से मुक्ति पायी, यहां राम-सेतु के निर्माण में लगे ऐसे पत्थर भी मिलते हैं, जो पानी पर तैरते हैं। मान्यता अनुसार नल-नील नामक दो वानरों ने उनको मिले वरदान के कारण जिस पाषाण अथवा शिला को छूआ, वो पानी पर तैरने लगे और सेतु बनाने के काम आए ।

किन्तु इन सभी स्थलों में मेरे हृदय को जिस स्थान ने आनंद की अनुभूति से भर दिया वह था कोदंडराम मंदिर जिसे विभीषण मंदिर के नाम से भी जाना जाता है । यह मंदिर रामेश्वरम् के टापू के दक्षिण भाग में, समुद्र के किनारे स्थित है। यह मंदिर मुख्य रामेश्वरम मंदिर से करीब 8 किलोमीटर दूर है। रावण-वध के बाद राम जी ने इसी स्थान पर विभीषण का राजतिलक किया था।

यह स्थल बड़ा ही रहस्यमय जान पड़ता है मंदिर के सामने जहां तक नज़र जाय वहाँ तक समुद्र की सफ़ेद रेती दिखलाई पड़ती है । एक सन्नाटा सा पसरा हुआ जान पड़ता है और यहाँ आ कर मुझे जो असीम शांति का अनुभव हुआ वह मैं वर्णन नहीं कर सकता । विश्वास मानिए यहाँ आ कर आपका हृदय आपसे कहेगा की अवश्य ही इस जगह में कुछ तो है ।

रामेश्वरम में अनेकों तीर्थ स्थल हैं जिनहे आपको अवश्य घूमना चाहिए जिनमें प्रमुख रूप से विल्लीरणि तीर्थ, एकांत राम, सीता कुण्ड, आदि-सेतु, राम झरोखा गंधमादन पर्वत, जटा तीर्थ, धनुषकोडि आदि हैं ।

कैसे पहुँचें :-
रामेश्वरम से सबसे नजदीक का हवाईअड्डा मदुरई में है जिसकी दूरी करीब 177 किलोमीटर है । मदुरई से बस अथवा अपने निजी वाहन द्वारा रामेश्वरम पहुंचा जा सकता है ।
रेल मार्ग द्वारा भी यहाँ बड़ी सुगमता से पहुंचा जा सकता है यहाँ का रामेश्वरम स्टेशन देश के करीब सभी बड़े रेल्वे स्टेशनों से सीधा जुड़ा हुआ है ।
सड़क मार्ग द्वारा भी यहाँ पहुंचा जा सकता है तमिलनाडू राज्य निगम की बसों द्वारा तमिलनाडू के विभिन्न शहरों से यहाँ के लिए बसें उपलब्ध रहती हैं ।

संतोष चौबे

सन 1858 की वह वीरगाथा जो आपकी अंतरात्मा को झकझोर देगी - बावनी इमलीप्रिय मित्रों अद्भुत वीर गाथा है, इसे पढ़ें मनन करें और...
15/02/2022

सन 1858 की वह वीरगाथा जो आपकी अंतरात्मा को झकझोर देगी - बावनी इमली

प्रिय मित्रों अद्भुत वीर गाथा है, इसे पढ़ें मनन करें और विशेष आग्रह है अपने बच्चों को अवश्य बताएं। वामपंथी इतिहासकारों ने कभी इस वीरगाथा का मूल्य ना समझा।

162 साल पुराना इमली का वृक्ष आज भी अपने दुर्भाग्य पर अश्रु बहा रहा है। हमें अपने वीरों पर गर्व है। भारतवर्ष की यह पावन भूमि ऐसे ही वीर रणबांकुरों की जननी रही है।

भारत की वो एकलौती ऐसी घटना जब , अंग्रेज़ों ने एक साथ 52 क्रांतिकारियों को इमली के पेड़ पर लटका दिया था, बदकिस्मती से वो क्रांतिकारी राजपूत थे शायद इसलिए, इतिहास की इतनी बड़ी घटना ,आज भी गुमनाम है......

उत्तरप्रदेश के फतेहपुर जिले में स्थित बावनी इमली एक प्रसिद्ध इमली का पेड़ है, जो भारत में एक शहीद स्मारक भी है। इसी इमली के पेड़ पर 28 अप्रैल 1858 को गौतम क्षत्रिय, जोधा सिंह अटैया और उनके इक्यावन साथी फांसी पर झूले थे। यह स्मारक उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के बिन्दकी उपखण्ड में खजुआ कस्बे के निकट बिन्दकी तहसील मुख्यालय से तीन किलोमीटर पश्चिम में मुगल रोड पर स्थित है।

यह स्मारक स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा किये गये बलिदानों का प्रतीक है। 28 अप्रैल 1858 को ब्रिटिश सेना द्वारा बावन स्वतंत्रता सेनानियों को एक इमली के पेड़ पर फाँसी दी गयी थी। ये इमली का पेड़ अभी भी मौजूद है। लोगों का विश्वास है कि उस नरसंहार के बाद उस पेड़ का विकास बन्द हो गया है।

10 मई, 1857 को जब बैरकपुर छावनी में आजादी का शंखनाद किया गया, तो 10 जून,1857 को फतेहपुर में क्रान्तिवीरों ने भी इस दिशा में कदम बढ़ा दिया जिनका नेतृत्व कर रहे थे जोधासिंह अटैया। फतेहपुर के डिप्टी कलेक्टर हिकमत उल्ला खाँ भी इनके सहयोगी थे। इन वीरों ने सबसे पहले फतेहपुर कचहरी एवं कोषागार को अपने कब्जे में ले लिया। जोधासिंह अटैया के मन में स्वतन्त्रता की आग बहुत समय से लगी थी। उनका सम्बन्ध तात्या टोपे से बना हुआ था। मातृभूमि को मुक्त कराने के लिए इन दोनों ने मिलकर अंग्रेजों से पांडु नदी के तट पर टक्कर ली। आमने-सामने के संग्राम के बाद अंग्रेजी सेना मैदान छोड़कर भाग गयी ! इन वीरों ने कानपुर में अपना झंडा गाड़ दिया।

जोधासिंह के मन की ज्वाला इतने पर भी शान्त नहीं हुई। उन्होंने 27 अक्तूबर, 1857 को महमूदपुर गाँव में एक अंग्रेज दरोगा और सिपाही को उस समय जलाकर मार दिया, जब वे एक घर में ठहरे हुए थे। सात दिसम्बर, 1857 को इन्होंने गंगापार रानीपुर पुलिस चैकी पर हमला कर अंग्रेजों के एक पिट्ठू का वध कर दिया। जोधासिंह ने अवध एवं बुन्देलखंड के क्रान्तिकारियों को संगठित कर फतेहपुर पर भी कब्जा कर लिया।

आवागमन की सुविधा को देखते हुए क्रान्तिकारियों ने खजुहा को अपना केन्द्र बनाया। किसी देशद्रोही मुखबिर की सूचना पर प्रयाग से कानपुर जा रहे कर्नल पावेल ने इस स्थान पर एकत्रित क्रान्ति सेना पर हमला कर दिया। कर्नल पावेल उनके इस गढ़ को तोड़ना चाहता था, परन्तु जोधासिंह की योजना अचूक थी। उन्होंने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली का सहारा लिया, जिससे कर्नल पावेल मारा गया। अब अंग्रेजों ने कर्नल नील के नेतृत्व में सेना की नयी खेप भेज दी। इससे क्रान्तिकारियों को भारी हानि उठानी पड़ी। लेकिन इसके बाद भी जोधासिंह का मनोबल कम नहीं हुआ। उन्होंने नये सिरे से सेना के संगठन, शस्त्र संग्रह और धन एकत्रीकरण की योजना बनायी। इसके लिए उन्होंने छद्म वेष में प्रवास प्रारम्भ कर दिया, पर देश का यह दुर्भाग्य रहा कि वीरों के साथ-साथ यहाँ देशद्रोही भी पनपते रहे हैं। जब जोधासिंह अटैया अरगल नरेश से संघर्ष हेतु विचार-विमर्श कर खजुहा लौट रहे थे, तो किसी मुखबिर की सूचना पर ग्राम घोरहा के पास अंग्रेजों की घुड़सवार सेना ने उन्हें घेर लिया। थोड़ी देर के संघर्ष के बाद ही जोधासिंह अपने 51 क्रान्तिकारी साथियों के साथ बन्दी बना लिये गये।

28 अप्रैल, 1858 को मुगल रोड पर स्थित इमली के पेड़ पर उन्हें अपने 51 साथियों के साथ फाँसी दे दी गयी। लेकिन अंग्रेजो की बर्बरता यहीं नहीं रुकी । अंग्रेजों ने सभी जगह मुनादी करा दिया कि जो कोई भी शव को पेड़ से उतारेगा उसे भी उस पेड़ से लटका दिया जाएगा । जिसके बाद कितने दिनों तक शव पेड़ों से लटकते रहे और चील गिद्ध खाते रहे । अंततः महाराजा भवानी सिंह अपने साथियों के साथ 4 जून को जाकर शवों को पेड़ से नीचे उतारा और अंतिम संस्कार किया गया । बिन्दकी और खजुहा के बीच स्थित वह इमली का पेड़ (बावनी इमली) आज शहीद स्मारक के रूप में स्मरण किया जाता है।

हमने भू पर रश्मिरथी के घोड़े लाख उतारे हैं,

लेकिन हम अपने ही घर में जयचंदों से हारे हैं ।

जय हिंद, वंदे मातरम

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Agra
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