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03/06/2023

पत्रकारिता के युगपुरुष मौलाना मोहम्मद बाक़ीर देहलवी /
साभार आज का अखबार 'अमृत विचार'

देश की मीडिया अभी अपनी विश्वसनीयता के सबसे बड़े संकट से रूबरू है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया, उसपर सत्ता और पैसों का दबाव वैसा कभी नहीं रहा था जैसा आज दिखता है। वज़ह साफ़ है। चैनल और अखबार चलाना अब अब कोई मिशन या आन्दोलन नहीं रहा। 'जो बिकता है, वही दिखता है' के इस दौर में पत्रकारिता अब खालिस व्यवसाय है। उसपर अब किसी लक्ष्य के लिए समर्पित लोगों का नहीं, बड़े व्यावसायिक घरानों का लगभग एकच्छत्र कब्ज़ा है। देश के जो मुट्ठी भर लोग मीडिया को लोकचेतना का आईना बनाना चाहते हैं, उनके आगे साधनों के अभाव में प्रचार-प्रसार और वितरण का बड़ा संकट है। कुल मिलाकर मीडिया का जो वर्तमान परिदृश्य है, उसमें दूर-दूर तक कोई उम्मीद नज़र नहीं आती।

वैसे इस देश ने अभी पिछली सदी में आज़ादी की लड़ाई के दौरान पत्रकारिता का स्वर्ण काल देखा है। देश की आज़ादी, समाज सुधार, धार्मिक सहिष्णुता और जन-समस्याओं के समाधान को समर्पित अखबारों और पत्रकारों की सूची बहुत लंबी रही है। जनपक्षधर पत्रकारिता के उस दौर की शुरुआत उन्नीसवी सदी में उर्दू के एक अखबार से मानी जाती है। आमजन के मसले उठाने वाला देश का पहला उर्दू अखबार 'जम-ए-ज़हांनुमा' वर्ष 1822 में कलकत्ता से निकला था। उसके पंद्रह साल बाद 1837 में दिल्ली से देश का दूसरा उर्दू अखबार निकला। अखबार का नाम था 'उर्दू अखबार दिल्ली' और उसके संपादक थे मौलाना मोहम्मद बाक़ीर देहलवी। यह अखबार ज्वलंत सामाजिक मुद्दों पर जनचेतना जगाने और देश के स्वाधीनता संग्राम की गतिविधियों से आमजन को जोड़नेवाला देश का पहला अखबार था और मौलवी बाक़ीर पहले ऐसे निर्भीक पत्रकार जिन्होंने हथियारों के दम पर नहीं, कलम के बल पर आज़ादी की लड़ाई लड़ी। वे देश के अकेले पत्रकार थे जिन्हें स्वाधीनता संग्राम में प्रखर और क्रांतिकारी भूमिका निभाने के आरोप में अंग्रेजी हुकूमत ने मौत की सज़ा दी थी।

1790 में दिल्ली के एक रसूखदार घराने में पैदा हुए मौलवी मोहम्मद बाक़ीर देहलवी चर्चित इस्लामी विद्वान और फ़ारसी, अरबी, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं के जानकार थे। उस दौर के एक प्रमुख शिया विद्वान मौलाना मोहम्मद अकबर अली उनके वालिद थे। मदरसों में धार्मिक शिक्षा हासिल करने के बाद मौलवी बाक़ीर ने दिल्ली कॉलेज से अपनी पढ़ाई पूरी की। वे उसी कॉलेज मे फ़ारसी के शिक्षक बने और फिर आयकर विभाग मे तहसीलदार। उनका मन इन कामों में नहीं लगा। 1836 में जब सरकार ने प्रेस एक्ट में संशोधन कर लोगों को अखबार निकालने का अधिकार दिया तो उन्हें अपना गन्तव्य समझ आ गया। 1837 मे उन्होंने देश का दूसरा उर्दू अख़बार ‘उर्दू अखबार दिल्ली’ के नाम से निकाला जो उर्दू पत्रकारिता के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ। इस साप्ताहिक अखबार के माध्यम से मौलवी बाक़ीर ने सामाजिक मुद्दों पर लोगों को जागरूक करने के अलावा अंग्रेजों की साम्राज्यवादी और विस्तारवादी नीति के विरुद्ध लगातार लिखा। दिल्ली और आसपास के इलाके में अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ जनमत तैयार करने में इस अखबार की सबसे बड़ी भूमिका रही थी। अख़बार की ख़ासियत यह थी कि यह कोई व्यावसायिक आयोजन या व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का हथियार नहीं, बल्कि एक मिशन था। अखबार के खर्च के लिए उस ज़माने में भी उसकी कीमत दो रुपए रखी गई थी। अखबार छप और बंट जाने के बाद जो पैसे बचते थे, उसे गरीबों और ज़रूरतमंदों में बांट दिया जाता था।

मौलवी बाक़ीर हिन्दू-मुस्लिम एकता और हमारे देश की साझा सांस्कृतिक विरासत के पक्षधर रहे थे। 1857 में देश में स्वाधीनता संग्राम के उभार को कमज़ोर करने के लिए अंग्रेजों ने दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे भड़काकर हिन्दू-मुस्लिम एकता में सेंध लगाने की एक बड़ी साज़िश रची थी। उन्होंने जामा मस्जिद के आसपास बड़े-बड़े पोस्टर चिपकाकर मुसलमानों से हिन्दुओं के खिलाफ़ जेहाद छेड़ने की अपील की। उनकी दलील यह थी कि 'साहिबे किताब' के मुताबिक मुसलमान और ईसाई स्वाभाविक दोस्त हैं। बुतपरस्त हिन्दू कभी मुसलमानों के शुभचिंतक नहीं हो सकते। पोस्टरों में यह सफाई भी दी गई थी कि अंग्रेजों द्वारा अपनी फौज के लिए निर्मित कारतूसों में सूअर की चर्बी का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं किया गया है। इशारा साफ था कि उनमें गाय की चर्बी का प्रयोग होता था। मौलवी बाक़ीर ने उन साजिशों को बेनकाब करने में कोई कसर न छोड़ी। अपने अखबार में उन्होंने लिखा - 'अपनी एकता बनाए रखो ! याद रखो, अगर यह मौक़ा चूक गए तो हमेशा के लिए अंग्रेजों की साजिशों, धूर्तताओं और दंभ के शिकार बन जाओगे। इस दुनिया में तो शर्मिंदा होगे ही, यहां के बाद भी मुंह दिखाने लायक नहीं रहोगे।'

उस दौर में जब देश में कोई सियासी दल नहीं हुआ करता था, इस अखबार ने लोगों को जगाने और उन्हें आज़ादी के पक्ष में संगठित करने में अहम भूमिका निभाई थी। 1857 मे जब स्वतंत्रता सेनानियों ने आखिरी मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफ़र के नेतृत्व में अंग्रेज़ो के ख़िलाफ़ बग़ावत का बिगुल फूंक दिया तो मौलवी बाक़ीर हाथ में कलम लेकर इस लड़ाई में शामिल हुए। उन्होने तबतक अंग्रेजों की नज़र में चढ़ चुके अपने अखबार का नाम बदल कर बहादुर शाह जफ़र के नाम पर 'अख़बार उज़ ज़फ़र' कर दिया और उसके प्रकाशन का दिन भी परिवर्तित कर दिया। 17 मई, 1857 को इस अखबार ने विद्रोहियों के मेरठ से दिल्ली मार्च और दिल्ली में उनपर अंग्रेजी फौज के अत्याचार की एक ऐतिहासिक और आंखों देखी रिपोर्ट छापी थी जिसकी आज भी चर्चा होती है। विद्रोहियों और दिल्ली के लोगों में अंग्रेजी हुकूमत के प्रति आक्रोश पैदा करने में इस रिपोर्ट की बहुत बड़ी भूमिका रही थी। लार्ड केनिंग ने 13 जून 1857 को मौलवी साहब के बारे में लिखा था - 'पिछले कुछ हफ्तों में देसी अखबारों ने समाचार प्रकाशित करने की आड़ में भारतीय नागरिको के दिलों में दिलेराना हद तक बगावत की भावना पैदा कर दी है।'

स्वाधीनता संग्राम के दौरान मौलवी बाक़ीर के लेखों के कुछ उद्धरण और उनके अखबार की तत्सम्बन्धी कतरनें संग्रहालयों में आज भी उपलब्ध हैं। उन्होंने लोगों को यह कहकर ललकारा था - 'मेरे देशवासियों, वक़्त बदल गया। निज़ाम बदल गया। हुकूमत के तरीके बदल गए। अब ज़रुरत है कि आप खुद को भी बदलो। सुख-सुविधाओं में जीने की बचपन से चली आ रही अपनी आदतें बदलो ! अपनी लापरवाही और डर में जीने की मानसिकता बदल डालो। यही वक़्त है। हिम्मत करो और विदेशी हुक्मरानों को देश से उखाड़ फेको !' विद्रोहियों की हौसला अफ़ज़ाई करते हुए उन्होंने लिखा था - 'जिसने भी दिल्ली पर क़ब्ज़े की कोशिश की वह फ़ना हो गया। वह सोलोमन हों या फिर सिकंदर, चंगेज़ खान हों या फिर हलाकु या नादिऱ शाह, सब फ़ना हो गए। ये फ़िरंगी भी जल्द ही मिट जाएँगे।' मौलवी साहब स्वतंत्रता सेनानियों के बीच लेखन के अलावा अपने जोशीले तक़रीरों के लिए भी जाने जाते थे। जब भी विद्रोहियों का हौसला बढ़ाने की ज़रुरत होती थी, मौलवी साहब को उनकी आग उगलती तक़रीरों के लिए बुला भेजा जाता था और वे खुशी-खुशी उन निमंत्रणों को स्वीकार भी कर लेते थे।

1857 के सितम्बर के शुरुआत मे विद्रोहियों की पराजयों का सिलसिला शुरू हो गया था। इसके साथ ही मौलवी बाक़ीर के अखबार के प्रकाशन और वितरण पर संकट उपस्थित हो गया। 13 सितम्बर 1857 को प्रकाशित अखबार के आखिरी अंक में मौलवी साहब के शब्दों में पराजय का यह दर्द बड़ी शिद्दत से उभरकर सामने आया था। विद्रोहियों की अंतिम पराजय के बाद 14 सितंबर को हज़ारों दूसरे लोगों के साथ उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। तरह-तरह की यातनाएं देने के बाद 16 सितंबर को उन्हें मेजर विलियम स्टीफेन हडसन के सामने प्रस्तुत किया गया। हडसन ने अंग्रेजी साम्राज्य के लिए बड़ा खतरा मानते हुए बगैर कोई मुक़दमा चलाए उसी दिन उन्हें मौत की सजा सुना दी। 16 सितंबर को कलम के इस 69-वर्षीय सिपाही को दिल्ली गेट के मैदान में तोप के मुंह पर बांधकर बारूद से उडा दिया गया जिससे उनके वृद्ध शरीर के परखचे उड़ गए।

देश की पत्रकारिता के इतिहास में कलम की आज़ादी के लिए मौलवी बाक़ीर का वह बलिदान सुनहरे अक्षरों में लिखने लायक था,मगर ऐसा नहीं हुआ। वे इतिहास के हाशिए पर ही रह गए। देश की आजादी के बाद भी न कभी देश के इतिहास ने उन्हें याद किया और न देश की पत्रकारिता ने। यहां तक कि उनकी जन्मभूमि और कर्मभूमि दिल्ली में उनके नाम का एक स्मारक तक नहीं है। आज जब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कही जाने वाली मीडिया की जनपक्षधरता और विश्वसनीयता पर कुछ बड़े सवाल खड़े हैं तो क्या पत्रकारिता के इतिहास के इस विस्मृत नायक के आदर्शों और उसके जज्बे को याद करने की सबसे ज्यादा ज़रुरत नहीं है ?

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