03/05/2022
#टांगीनाथ_धाम गुमला, झारखंड।
टांगी का एक अर्थ फरसा भी होता है और माना जाता है कि गुमला जिले के टांगीनाथ धाम में जो फरसा है, वह भगवान परशुराम का है। किंवदंती है कि पिता जमदग्नि के आदेश पर अपनी मां रेणुका वध कर दिया तो बाद में काफी पछतावा हुआ। प्रायश्चित के लिए वे इसी जंगल में आए तो अपना फरसा गाड़कर तपस्या करने लगे। तपस्या करने के बाद वे यहां से चले गए और फरसा यहीं रहा गया। परशुराम भगवान शिव के शिष्य थे और झारखंड प्राचीन काल से ही शिव भूमि रही है। एक और किंवदती यह है कि यह भगवान शिव का त्रिशूल है। यह जमीन में धंसा हुआ है। जमीन पर इसकी ऊंचाई करीब आठ फीट है। बहुत पहले यहां करीब त्रिशूल के नीचे छह फीट तक खोदाई की गई थी, लेकिन त्रिशूल का अंतिम भाग नहीं मिला। स्थानीय लोगों का मानना है कि त्रिशूल की कुल लंबाई 17 फीट के ऊपर है।
नहीं लगा है आज तक जंग
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लोहे के इस प्राचीन त्रिशूल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वर्षा और पानी को झेलते हुए भी आज तक जंग नहीं लगा है। यह खुले में सैकड़ों सालों से पड़ा है। इसके पीछे अवधारणा यही है कि रांची और आसपास के इलाके में असुर जनजाति लौह गलाने की तकनीक में दक्ष थे। इनके लोहे में जंग नहीं लगता था। इस त्रिशूल का निर्माण गुप्त काल में पांचवीं-छठवीं शताब्दी का माना जाता है। असुर आज भी इस इलाके में रहते हैं और पांच दशक पहले तक वे इस काम में सिद्ध थे।
खंडित प्रतिमाएं और पुरावशेष
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राजधानी रांची से 165 किमी दूर गुमला जिले के डुमरी प्रखंड के मझगांव के निकट टांगीनाथ पहाड़ी पर यह धाम है। यहां अनेक टूटी-फूटी प्रतिमाएं हैं। इनमें सबसे अद्भुत है नौ घोड़े पर सवार भगवान सूर्य की प्रतिमा। इनके अलावा भैरव, खंडित स्तंभ, वास्तुखंड, पशु आकृति, शिवलिंग आदि पुरावशेष यहां हैं।
जशपुर के राजा ने कराया था निर्माण
पुराविद् डा. हरेंद्र प्रसाद सिन्हा कहते हैं कि इस मंदिर का निर्माण छत्तीसगढ़ के राजा मान सिंह ने कराया था। वे निस्संतान थे। टांगीनाथ के आशीर्वाद से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी। यद्यपित, त्रिशूल या कहें फरसा यहां बहुत पहले से था, जहां लोग पूजा करते थे। इसकी ख्याति भी दूर-दूर तक थी। यह कब, कैसे खंडहर में बदल गया, कहना मुश्किल है। विधिवत यहां खोदाई से ही सही-सही जानकारी मिल सकती है। 1915 में राय साहब चुन्नी लाल राय ने पहले-पहल इस पर एक लेख लिखा था।
बैगा जनजाति कराती है पूजा
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यहां के पुजारी को लेकर भी एक मान्यता है।
वर्तमान पुजारी राम कृपाल साय बैगा हैं। टांगीनाथ पर शोध करने वाले डा. संतोष भगत कहते हैं इनके पूर्वज सूरत मांझी एवं मूरत मांझी सरगुजा स्टेट के कर्मचारी थे। कुछ अज्ञात कारणों से राजा नाराज हो गए और दोनों भाइयों को जंजीर में बांधकर जमीन के नीचे दबा दिया, परंतु टांगीनाथ की कृपा से ये भागने में सफल रहे। चलते-चलते ये नवाडीह-मझगांव के निकट रुके। सपने में टांगीनाथ ने दर्शन दिया और वे पूजा-अर्चना में तल्लीन हो गए। इस घटना के बाद इनके वंशज की पूजा कराते आ रहे हैं। लोग इन्हें बैगा कहते हैं। ये मूलत: अहिर पैक जनजाति के माने जाते हैं।
(संजय कृष्ण के आलेख)