Try 2 Teach

Try 2 Teach My self C.s.pant from kaladhungi dist. - Nainital.
(1)

09/03/2023

गोल्डस्टार जूता, ये हम मिडिल क्लास के लौंडो के लिए एक इमोशन है, मजबूत सस्ता टिकाऊ,
जो ओरिजिनल गोल्डस्टार जूता होगा वो मेड इन नेपाल होगा,
खासकर 90' के जो मिडिल क्लास लौंडे हैं उन्होंने ये अपनी लाइफ में कभी ना कभी जरूर पहने होंगे,
ताऊजी आर्मी से रिटायर्ड हैं अक्सर वो अपनी आर्मी कैंटीन से गोल्ड स्टार के जूते लाते थे या तो ब्राउन कलर का फ्लीट जूता,घर में खुद के पहनने के लिए उन पर कब्जा मेरा होता था , खास बात इन जूतों की , कंफर्ट ज़ोन की अनुभूति, मजबूत सस्ता टिकाऊ, अभी स्पार्क वाला चल रहा था पैरों पे, आज अचानक इन गोल्डस्टार के जूतों को लेने के लिए मन डोल गया , चार से पांच दुकानें घूम ली सब जगह गोल्डस्टार की कॉपी , थोड़ी हैरानी भी हुई कि गोल्डस्टार की भी कॉपी है 🤣🤣🤣फिर एक दुकान में ओरिजिनल माल मिला अपुन ने भी तुरन्त उठाया कोई मोल भाव नहीं 😌❤ सिर्फ और सिर्फ 280 रुपये 😌😌

29/01/2023

कहानी नहीं, असल घटना है। ज़िला सुल्तानपुर की। एक पंडित जी और एक बाबू साहब (ठाकुर साहब) जिगरी दोस्त थे- दो जिस्म एक जान। बचपन से चालीसवें तक। फिर जाने क्या हुआ कि दुश्मनी हो गई।

अब पूरब गवाह है कि जिगरी दोस्त दुश्मन हों जाय तो दुश्मनी भी पनाह माँगने लगती है। सो वही हुआ। हर दूसरे दिन गोली चलना- लठैत छोड़िये ही, दोनों के कई बेटे तक दुश्मनी की आग का ईंधन बन गये मगर दुश्मनी चलती रही।

ख़ैर, ये होते हवाते बाबू साहब की बेटी की शादी का वक़्त आ गया और पूरब इसका भी गवाह है कि दुश्मनी जितनी भी बड़ी हो- बहन बेटियों की शादी ब्याह की बात आये तो बंदूक़ें ख़ामोश हो जाती हैं। एकदम ख़ामोश। और किसी ने यह परंपरा तोड़ी तो वो ज़िंदगी और पूरब दोनों की नज़र से गिर जाता है।

सो उस गाँव में भी वक्ती सही, सुकून उतर आया था। और फिर उतरी बारात। ठाकुरों की थी तो गोलियाँ दागती, आतिशबाज़ी करती, तवायफ़ के नाच के साथ। परंपरा थी तब की।

पंडित जी उस दिन अजब ख़ामोश थे। और लीजिये- अचानक उनकी नाउन चहकती हुई घर में- (गाँव में सारे संपन्न परिवारों के अपने नाऊ ठाकुर होते थे और नाउन भी- अक्सर एक ही परिवार के हिस्से।)

पंडिताइन को चहकते हुए बताईं कि ए भौजी- बरतिया लौटत बा। कुल हेकड़ई ख़त्म बाबू साहब के।

पंडिताइन स्तब्ध और पंडित जी को तो काटो तो ख़ून नहीं। बहुत मरी आवाज़ में पूछा कि ‘भवा का’?

नाउन ने बताया कि समधी अचानक कार माँग लिहिन- माने दाम। बाबू साहब के लगे ओतना पैसा रहा नाय तो बरात लौटे वाली है। पंडित जी उठे- दहाड़ पड़े। निकालो जीप। मतलब साफ- बाकी बचे बेटे, लठैत सब तैयार।

दस मिनट में पूरा अमला बाबू साहब के दरवाज़े पर- कम से कम दर्जन भर दुनाली और पचासों लाठियों के साथ। बाबू साहब को ख़बर लगी तो वो भागते हुए दुआर पे- एतना गिरि गया पंडित। आजे के दिन मिला रहा। पंडित जी ने बस इतना कहा कि दुश्मनी चलत रही, बहुत हिसाब बाकी है बकिल आज बिटिया के बियाह हा। गलतियो से बीच मा जिन अइहा। बाबू साहब चुपचाप हट गये।

पंडित जी पहुँचे समधी के पास- पाँव छुए- बड़ी बात थी, पंडित लोग पाँव छूते नहीं बोले कार दी- पीछे खड़े कारिंदे ने सूटकेस थमा दिया। द्वार चार पूरा हुआ। शादी हुई। अगले दिन शिष्टाचार/बड़हार। (पुराने लोग जानते होंगे- मैं शायद उस अंतिम पीढ़ी का हूँ जो शिष्टाचार में शामिल रही है)।

अगली सुबह विदाई के पहले अंतिम भोज में बारात खाने बैठी तो पंडित जी ने दूल्हा छोड़ सबकी थाली में 101-101 रुपये डलवा दिये- दक्षिणा के। ख़याल रहे, परंपरानुसार थाली के नीचे नहीं, थाली में।

अब पूरी बारात सदमे में क्योंकि थाली में पड़ा कुछ भी जो बच जाये वह जूठा हो गया और जूठा जेब में कैसे रखें।

समधी ने पंडित जी की तरफ़ देखा तो पंडित जी बड़ी शांति से बोले। बिटिया है हमारी- देवी। पूजते हैं हम लोग। आप लोग बारात वापस ले जाने की बात करके अपमान कर दिये देवी का। इतना दंड तो बनता है। और समधी जी- पलकों पर रही है यहाँ- वहाँ ज़रा सा कष्ट हो गया तो दक्ष प्रजापति और बिटिया सती की कहानी सुने ही होंगे। आप समधी बिटिया की वजह से हैं। और हाँ दूल्हे को दामाद होने के नाते नहीं छोड़ दिये- इसलिये किये क्योंकि अपने समाज में उसका हक़ ही कहाँ होता है कोई!

ख़ैर बारात बिटिया, मने अपनी बहू लेकर गई- पंडित जी वापस अपने घर। बाबू साहब हाथ जोड़े तो बोले बस- दम निकरि गय ठाकुर। ऊ बिटिया है, गोद मा खेलाये हन, तू दुश्मन। दुश्मनी चली।

ख़ैर- बावजूद इस बयान के फिर दोनों ख़ानदानों में कभी गोली न चली। पंडित जी और बाबू साहब न सही- दोनों की पत्नियाँ गले मिल कर ख़ूब रोईं, बच्चों का फिर आना जाना शुरु हुआ।

क्या है कि असल हिंदुस्तानी और हिंदू बेटियों को लेकर बहुत भावुक होते हैं, उनकी बहुत इज़्ज़त करते हैं। फिर चाहे बेटी दुश्मन की ही क्यों न हो।

जो नहीं करते वे और चाहे जो हों, न हिंदू हो सकते हैं न हिंदुस्तानी।

साभार {सच्ची घटना}

24/11/2022

मेरी पोस्ट उन तमाम लड़कियों के लिए है जिनको ये शिकायत है कि हमको ससुराल में बेटी नही समझा जाता।
पहले ये जानना जरूरी है कि बेटी थी तब क्या रोल था आपका घर में..आप आराम से उठती थी देर तक सोती रहती थी,खाना चाय नाश्ता सब मम्मी बना देती थी बाकी काम मेड करती थी कभी कभार आप घर के काम मे हाथ बंटाती थी।
अब बताएं कि आप की मम्मी भी यदि यही सोचती की मैं भी ससुराल में बेटी की तरह रहूंगी तो क्या आपको ये आराम मिलता शायद नहीं,शादी से पहले आप मां बाप की जिम्मेदारी है इसलिए वो आपकी गलतियों को नज़र अंदाज़ करते है,शादी के बाद आपके ऊपर भी आपकी माँ की तरह जिम्मेदारी आती है तो आपको भी वो करना होगा जो माँ घर मे करती थी।हमने लोग अपनी शादी से पहले की ज़िंदगी खूब ऐश के साथ काटकर आते है अब जब हम पर जिम्मेदारी आयी तो घबराना क्यों,क्यों शिकायत करना ।

अब मुझे बताएं यदि आप पीहर आएं आपकी भाभी देर तक सोती रहे मम्मी रसोई में काम करें तो क्या आप उस भाभी की तारीफ करेंगी ??कभी नहीं आप मां से कहेंगी की आप क्यो रसोई में खटती है भाभी को करने दिया करो,कौन लड़की ऐसी है जो भाभी से ये कहे कि भाभी आप खूब आराम करो मम्मी सब कर लेगी??
अब एक बात जो वो कहती है कि हम सिर्फ सास ससुर पति और अपने बच्चों का करेंगे दूसरों का नही मतलब देवर ननद जेठ ...अब इसका मुझे जवाब दें कि आपके भाई की शादी पहले हो गयी और भाभी आ गयी वो सब का खाना बनाए और आपका नही तो क्या आप या आपके मां बाप को सहन होगा ,बिल्कुल नहीं...इसलिए यदि जो आप चाह रही है वो आपकी भाभी आपके साथ करे तो बुरा नही लगना चाहिए।आपको अपनी ननद उनके बच्चों का आना बुरा लगता है तो आप भी सोच लीजिये आप की भाभी भी आपके आने से खुश नही होगी।

कभी सोचा है आपने अपनी मां को घर मे पीहर की तरह महसूस करवाया है??यदि नही तो आप कैसे उम्मीद करती है कि आपको महसूस हो। क्या माँ ने कभी ये शिकायत की कि मुझे जल्दी उठना पड़ता था,काम करना पड़ता था,शायद कभी नहीं वो तो सर दर्द होने पर भी आप लोगो के लिए खाना बनाती थी।
हर जगह का अपना महत्व है ।इसलिए दोनों को महत्व दीजिये।जो लड़कियां समझती है वो तारीफ के काबिल हैं🙏
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 ेल और  #लूण( नमक)आज कितने लोग यकीन करेंगे कि किस तरह हम आग पड़ोस से मांग कर लाया करते थे?कई बार बचपन को याद करके बड़ा अनू...
23/11/2022

ेल और #लूण( नमक)

आज कितने लोग यकीन करेंगे कि किस तरह हम आग पड़ोस से मांग कर लाया करते थे?

कई बार बचपन को याद करके बड़ा अनूठा और डर या फिर यूँ कहूँ शर्मिंदगी से भरा दौर भी याद आ जाता है।

पहाड़ों में साधन की कमी तो सदियों से चली आ रही दास्तान है, इसी में एक दौर जिसे उकेर पाना उतना ही मुश्किल है जितना मुश्किल वो दौर था।

बात शुरू करता हूँ मैं 91 में पैदा हुआ यानि ऐसे परिवर्तन वाले दौर में जहाँ दुनिया वैश्वीकरण की ओर थी और हम बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष करते थे। स्थिति बताने के लिए शायद इतना काफी होगा कि मैं 7वीं में पढ़ता था तब खाकी स्कूल ड्रेस की एकमात्र पेंट थी मेरे पास और अंडरवीयर की तो बात ही क्या करनी। एकमात्र पैंट वही घर में और वही स्कूल में पहनने को मजबूर अक्सर गन्दी हो जाने पर शाम के समय धोता था और अन्य एक पजामा जैसा था भी तो पिछवाड़े में दो बड़े चश्में जैसे टाँके लगे हुए थे जिसे पहनने में शर्मिंदगी अलग थी। ये तो छोड़िए मात्र ₹ 2 उस दौर में स्कूल फीस होती थी वो भी हमेशा लेट हो जाती थी अब हँसी भी आती सोचकर और ये सोचकर थोड़ा सहम सा भी जाता हूँ कि पिताजी भाई ये लोगों के लिए कितना मुश्किल दौर रहा होगा वो।

खैर उस और न जाते हुए टॉपिक में आता हूँ। इस दौर में बिजली थी नहीं एक-दो लम्फु(लैंप) थे जिनमें अक्सर मिट्टी का तेल खत्म हो जाता था एक-दो बत्तियां ईजा ने शीशे की छोटी शीशियों के ढक्कन में छेद कर बनाये थे तो बत्तियां हो जाती थी पूरे घर के लिए।

बचपन के उन दिनों की याद आती है तो मन भारी भी हो जाता है कि कैसे दौर में थे हम लोग, घर में बिछौने के गुदड़े (कपड़ों को सीकर बनाये गद्दे) थे जिनमें असंख्य पिस्सुओं और जूँओं का अधिवास भी होता था, जो रात भर कितना खून चूसते होंगे मालूम नहीं।

अक्सर सुबह या दिन में माचिस न होने के कारण परघर, मलघर से आग के कोयले लाने होते थे, मिट्टी का तेल कंट्रोल में मिलता था पर ₹ के अभाव में वो भी महीने भर के लिए नहीं आ सकता था ऐसे में चन्द दिनों में खत्म हो जाता फिर वही पेंचों (अपने पास होने पर वापस करते थे) लेना पड़ता था।

एक और चीज जिसके लिए हमेशा संघर्ष करना पड़ता था वो था लूण(नमक) आज तो विभिन्न प्रकार के नमक बाजार में है उस समय मोटे दानों वाला नमक जो 4₹ किलो मिलता था अक्सर खत्म हो जाता था फिर वही पेंचों मांगकर लाना होता था।

हालाँकि ऐसे केवल हम एकमात्र नहीं करते थे बल्कि तलघर, मलघर, परघर सबके साथ यही समस्या थी और ये सामान्य सी बात थी पर हमारे बालमन में ये चीजें कहाँ आ पाती जब भी मांगने का समय आता समझ लीजिए हम जड़वत हो जाते थे। मांगना क्यों पड़ता है ये सोचकर और माँगने जाने में होने वाली शर्मिंदगी आज भी सोचता हूँ तो वही सरसरी जेहन में दौड़ने लगती है।

हाँ पर ईजा-बाबा की मेहनत खेतों में थी, खेत से रुपया तो नहीं मिलता था पर हाँ वर्ष भर का अनाज और भरपूर घी-दूध हमेशा होता था। ये उनके हाथ में था पर उनके हाथ में जो नहीं था वो था रुपया जिसकी जद्दोजहत करने आज हम घरों से कोसों दूर रहकर उस दौर को स्मृत कर रहे हैं।

बस स्मृति आग, तेल और लूण के उस दौर से आज कोसों दूर बहुत दूर जाकर भी कभी-कबार यात्रा करा लौटती है।
और sayad वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए नामुनकिन सी प्रतीत होती है किन्तु कभी अपनी जड़ो (माँ -पापा,आमा- बुबु ,नाना -नानी) के साथ आत्मीयता से बैठे और पूछे तो आपको लगेगा की ये बाते काल्पनिक नहीं अपितु उस दौर मे आम हुआ करती थी।🙏🙏🙏

 #स्कूल_की_तैयारी_और_भात_की_भद्याईहमारे बचपन मे च्वाइस नाम की कोई चीज नही थी , चीजें निर्धारित हुवा करती थी सभी बच्चों क...
20/11/2022

#स्कूल_की_तैयारी_और_भात_की_भद्याई

हमारे बचपन मे च्वाइस नाम की कोई चीज नही थी , चीजें निर्धारित हुवा करती थी सभी बच्चों को चाहे अमीर हो या गरीब ज्यादे फर्क नही था | एक बात और तब गांवों मे अमीर मतलब रुपया पैसा नही था | अमीर का मतलब होता था जिसकी जमीन थी जिसमे पर्याप्त अन्न होता था , धिनाली थी , परिवार कर्मठ था और परिवार का एक सदस्य नौकरी मे होता था | ऐसा नही था कि तब गांव में पैसे वाले नही थे पर रहन सहन लगभग सबका एक जैसा ही था | खेती पाती उनकी महिलाए भी करती थी | टल्ली वाला पैजामा दिखना आम बात थी फर्क इतना था कि हमारे नीले पैजामे मे लाल टल्ली तो अमीर नीली मैचिग की टल्ली लगा लिया करते थे |
हमें कभी अपनी गरीबी पर हीन भावना नही होती थी |
आवश्यकताए सीमित थी | पुरुष अधिकतर नौकरीपेशा होते तो खेती महिलाए संभालती थी | महिलाओ के पास काम बहुत था तो समय मिलना मुश्किल होता था |
हमें सुबह स्कूल जाना होता था और हमारी ईजा(माँ) को हमें तैयार करने नाश्ता बनाने तक का समय नही था क्योकि यही समय उनके भी नहाने धोने , भीतर झाड झाडने , गाय भैंसो को न्यार पराल डालने का होता था | फिर परिवार के बडे बुजुर्गो को चाय देना , उनके लिए पानी गरम करना उनकी पूजा पाठ की व्यवस्था करना भी होता था | जिसके नौले धारे दूर हुए उनका एक काम तो पानी सारना भी हुवा , जानवर तो वैसे भी पानी ज्यादे ही पी जाते थे |
अब जब हम स्कूल के लिए तैयार होते तो ईजा हमें ले जाकर एक लोटे पानी से हमारा मुंह धुलवा कर तेल चुपडकर बालो में कंघी कर देती बस इतना ही था हमें तैयार करना | चूंकि दिन भर मिट्टी वगैरह मे खेलते रहते तो हमारे बाल उलझे हुए मिलते अगली सुबह और जब ईजा उनमें कंघा करती तो कंघा बालो में फंस जाता और ईजा चूंकि जल्दी मे होती तो कंघी से हमारे बाल लगभग उचेड ही देती | हम रोते , आंसू गिराते और ईजा से लगभग लड ही पडते , ईजा हैगोय , हैगोय , आब नि करू पीड कहती और बाल उचेडना चालू रहता | हम ईजा से छूटकर भागते फिर ईजा पुचकारती - जल्दी आ ईजा मेके ढील हुणै |
ईजा के लिए हमे मनाने हमारे पीछे आने का समय नही था | कभी मनाना कभी मैक्याना कभी रूठ जाना ईजा के ऐसे ही रूप दिखाई देते थे |
जिसके बडे भाई बहिन हुए उनकी जिम्मेवारी थी छोटो को तैयार करे , यहा बडी दीदी या किसी और के तैयार करने पर एक ठीकठाक जूतम पैजार रोज का सीन होता | दीदी लोग बात न मानने पर छोटो को एकाद फचैक जमा देते फिर ईजा की अदालत मे दीदी को गाई मैक छोटे को पुचकार मिलती | दीदीकहतीआज से नही करूंगी इसको तैयार , छोटा भाई आँसू और नाक के सिंगाण की मिश्रित जलधारा को पोछते हुए दीदी को दूर से चिढाने लगता | फिर हम नीली बुकसट और खाकी पेन्ट पहनते | यही ड्रैस हर सरकारी स्कूल की थी | हमारी तो इण्टर तक यही रही |
आजकल कभी सोचता हूं कि सिंगाण तो बच्चो की नाक मे निकलता ही नही | हमारी तो इतनी नाक बहती थी कि सुणुक्क सुणुक्क करने की आदत हो गयी थी | जब नाक ना भी बह रही हो तब भी सुणुक्क सीईई सीईई करते रहते थे | रूमाल से नाक पोछते है तो हमे बडे होकर पता चला | हम तो ले हतौडा मार फतोडा वाले थे | रूमाल में हम लोग गांठ लगाकर पैसे रखते या होलियो मे गुड |
अब आती नाश्ते की बारी | गांवो मे तब सुबह नाश्ते का तो प्रचलन ही नही था | वहां तो शहरो के नाश्ते के टाइम पर भात पक जाता था | नाश्ता तो शाम की चाय के समय पर किया जाता था वो भी किसी किसी के घर |
हमें सुबह स्कूल जाना होता था और खाने के समय और हमारे जाने के समय का तालमेल नही बैठता था इसलिए बच्चो के लिए रात से रोटी रख दी जाती जिसे सुबह स्कूल जाने से पहले तवे पर या डायरैक्ट जांती पर गरम कर उसके उपर गुड , भांग या कोई धनिये , जीरे का नमक या घी वगैरह के साथ हमें मिल जाता था | ये बासी नही खाता , ये पसंद नही यो भल नै लागन जैसे शब्द तो हम जानते ही नही थे हमें जो मिल गया वही स्वाद लेकर खा जाते | कभी कहीं से बासी पूडिया आ गयी तो सुबह के नाश्ते मे हमारा त्यार हो गया | सुबह रोटी के साथ - मूली का कच्चा थेचुवा , दही , दूध भी हमे अच्छा ही लगता | हम नमक के कणिक के साथ भी रोटी भकोर जाते |
अब दस ग्यारह बजे तक जो भात परिवार के लिए बनता वो हमारे लिए स्कूल से आते वक्त के लिए किसी कढाई या भद्यावे मे रख दिया जाता था |
एक तो बचपन उपर से दिन भर की भागदौड से स्कूल की छुट्टी होने पर खूब भूख लग जाती और हम स्कूल से दौडकर घर आते बस्ते को एक ओर पटकते और रसोई के उस कोने पर पहंच जाते जहां भात की कढाई होती थी | जल्दी इतनी रहती कि हाथ धोना सिर्फ गीला कर एक बार हाथो को एक बार रगडकर पेन्ट मे पोछ लेते |
गर्मिया हुई तो कढाई मे रखे ठन्डे भात पर ही टूट पडते और सर्दियो में कढाई के भात को ओलकर जांती पर रख देते | हमारे लिए दाल , भात , टपकिया , झोली ( पयो ) जो भी बना हो सब एक कढाई मे मिलाकर ही रखा होता था | अधधुले हाथो से मिलाकर बांज के क्वेलौ मे गरम करने रख देते | अगर डाडू हुवा तो ठीक नही तो बीच बीच मे हाथो से मिलाते |
फिर सभी बहन भाई कढाई के चारो तरफ बैठकर भात की सपोडा सपोडी चालू करते | कभी कभी ज्यादा गरम भात भी मुंह मे डाल जाते तब मुंह खोलकर आआआ करके बहन या भाई से मुंह मे फूक भी मार मागते .| लोहे की कढाई भी तब बढिया आती थी जंग कम ही लगता था , कढाई का भात गरम गरम अलग ही स्वाद लगता था | मिक्स दाल मे से कभी बडी राजमा के गूदे कभी टपकिया से आलू के टुकडे अलग अलग करके खाना खाने का स्वाद बढा देता था | कढाई को चाट चाट कर लगभग साफ धुली हुई सी बना देने की कला तो तत्कालीन हर पहाडी बच्चे को आती ही थी |
हालाकि पहाड मे एक आम कहावत बडी प्रचलित थी कि जो भद्याव या कढाई चाटता है उसके ब्याह मे बारिस होती है पर मुझे लगता है ये सही होता तो पहाड की हर शादी मे सुनामी ही आती |
भात गरम करने की प्रक्रिया मे कढाई की तली पर भात चिपक जाता था और कुछ अधजला हो जाता था जिसे हम - कुटूणि कहते थे | असली लडाई कुटूणि के लिए होती थी | थोडा जली हुई , कुरकुरा सी और भुटैन भुटैन होती थी कुटूणि | आज भी उसका स्वाद भूले नही भूलता | बहन भाइयो मे कुटूणि के लिए भी जंग होती |
भात को धपोडते ही हम कभी कपडे बदल कर तो कभी बिना बदले स्कूल ड्रैस मे खेलने दौड पडते - कभी घर के पिछवाडे , कभी गधेरे में कभी फसल कटे खाली खेतो में , कभी किसी पेड के नीचे | घर का आंगन तो हमारा खेल का मैदान हुवा ही ..
पहाड के कस्बो का तो पता नही पर गांव के बच्चो का बचपन तब ऐसा ही था |
#कुछ_पुरानी_बाते_पहाड_की
कॉपी पेस्ट विनोद पंत जी की वाल से

ज़िंदगी में कभी ट्रांसफॉर्मेशन नहीं होता सिर्फ ट्रांज़िशन होता है। कॉलेज ख़त्म होने के बाद वाला समय ज़िंदगी का सबसे प्रल...
21/09/2022

ज़िंदगी में कभी ट्रांसफॉर्मेशन नहीं होता सिर्फ ट्रांज़िशन होता है। कॉलेज ख़त्म होने के बाद वाला समय ज़िंदगी का सबसे प्रलयकारी मास्टर होता है। और यहाँ से शुरू होते हैं ज़िंदगी में असली ट्रांज़िशन।
ऐसे समय में लड़कियों को 100% जॉब प्लेसमेंट मिल चुकी होती है क्योंकि किसी भी क्षेत्र में लड़कियाँ लड़कों से आगे हैं या फिर यूँ कह लीजिये कि कोई भी कंपनी जो कैंपस प्लेसमेंट के लिए आती है रिजल्ट देखकर लगता है कि वो ब्यूटी कॉन्टेस्ट करवा कर गई थी जिसमें एक दो लड़कों का सेलेक्शन शायद मेकअप आर्टिस्ट के तौर पर किया गया है।(कम से कम हर एवरेज कॉलेज की यही कहानी है)
अब बचे लौंडे, ये रिज़ल्ट के बाद गुमटी पर पहुँच कर धुआँ उड़ाते हुए कैंपस प्लेसमेंट का रिज़ल्ट तो भुला देते हैं लेकिन आगे आने वाली परिस्थितियों से अनभिज्ञ होते हैं कि ज़िन्दगी अब इनको 'फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे' मोड पर डालने वाली है।
दिल्ली, मुम्बई, बैंगलोर और घर ये किसी भी बेरोज़गार लौंडे के चार धाम होते हैं। जिसमें सबसे मुश्किल राह अपने घर की ही होती है क्योंकि पम्मी आंटी और शर्मा अंकल किसी भी वारदात को अंजाम दे सकते हैं। ये लोग यूनिवर्सल आतंकवादी हैं और UN की लिस्ट में पहले नम्बर पर आते हैं।
अब बाकी बची तीन जगह में लौंडा अपने प्रिय सीनियर या किसी भाई के फ्लैट पर डेरा डालता है और अच्छी नौकरी के लिए हर संभव तिगड़म लगाता है। अब यहाँ अच्छी नौकरी वो कन्या है जिसका अस्तित्व सिर्फ टिंडर(नौकरी.कॉम) पर है। वो आपको सिर्फ दिखती है, मिलती कभी नहीं।
इतने समय में लौंडे का सिगरेट पीते हुए हर फ़िक्र को धुँए में उड़ाना बंद और गहन चिंतन वाला मोड शुरू हो जाता है। अब वो दारू पीने के लिए मंगलवार, बृहस्पतिवार और शनिवार जैसे दिनों से बचता है, असल में ये बजट मैनेजमेंट और ऊपर वाले की अटेंशन पाने का टोटका होता है। सुबह उठकर सूर्य को जल और भगवान को धूपबत्ती दिखाता है। रात को 10 बजे बिस्तर पर लेट जाता है और 12 बजे तक अपनी ख्याली नौकरी के बारे में सोचते हुए सोता है।
फिर धीरे-धीरे पैमाने बदलकर ब्लैक डॉग से रॉयल स्टैग हो जाते हैं। ख्वाबों का धुआँ मार्लबोरो से छोटी गोल्ड फ्लैक तक रह जाता है। नौकरी पाने का प्रथम उद्देश्य सिर्फ सर्वाइवल रह जाता है मने रहना-खाना। क्योंकि पिताजी, जिनको सिर्फ लौंडा फ़ोन करता था वो भी पैसे भेजने के लिए आजकल उनकी तरफ से आने वाली फ़ोन कॉल में रिकॉर्ड उछाल है।
फाइनली लौंडे को एक एवरेज नौकरी मिलती है। लेकिन लौंडे का रिस्क मैनेजमेंट अच्छा है इसीलिये अभी घर पर नहीं बताता। पहली सैलरी हाथ में आती है और आज वो अपनी दुनिया में शहंशाह है। आज तो ब्लैक डॉग खुलनी चाहिए लेकिन नहीं आज मंगलवार है और लड़के ने मंदिर में प्रसाद चढ़ाया है।
ज़िंदगी की सबसे कठिन प्रमेय शायद यही होती है,
'लौंडे से आदमी हो जाना।'

श्रीलंका...जहां सब कुछ बरबाद हो गया हो। सरकार कंगाल हो चुकी हो। ईंधन, बिजली,संसाधन सब खत्म 15 युवा एशिया जीतने का सपना ल...
13/09/2022

श्रीलंका...जहां सब कुछ बरबाद हो गया हो। सरकार कंगाल हो चुकी हो। ईंधन, बिजली,संसाधन सब खत्म 15 युवा एशिया जीतने का सपना लिए कोलंबो से दुबई पहुंचते है। सामने बेहद ताकतवर देशों की टीम। सबको रौंदकर एशिया कप पर कब्जा कर लेते है। अपमान और अभाव की आग इतिहास लिखती है... पानी तरह पैसा बर्बाद करने वाले शक्तिशाली देश पहले राउंड में ही बाहर हो कर लौट आते है.. बेशक़ खेल ही हो, लेकिन सीखने में क्या हर्ज़ है..

05/09/2022

हमने इस मुल्क में एक शब्द खोजा था, वह है द्विज। द्विज का अर्थ है ट्वाइस बॉर्न, दुबारा जन्मा हुआ वही आदमी है, जिसे गुरु मिल गया। नहीं तो दुबारा जन्मा हुआ आदमी नहीं है। एक जन्म तो मां बाप देते है, वह शरीर का जन्म है। एक जन्म गुरु के निकट घटित होता है, वह आत्मा का जन्म है। जब वह जन्म घटित होता है तो आदमी द्विज होता है। उसके पहले आदमी एक जन्मा है, उसके बाद दोहरा जन्म हो जाता है, ट्वाइस बॉर्न हो जाता है।

गुरु के लिए हमने जैसी श्रद्धा की धारणा बनायी है, ऐसा पश्‍चिम के लोग जब सुनते है तो भरोसा नहीं कर पाते कि ऐसी श्रद्धा की क्या जरूरत है। जब किसी व्यक्ति से सीखना है तो सीखा जा सकता है। ऐसा उसके चरणो में सिर रखकर मिट जाने की क्या जरूरत है! और उनका कहना भी ठीक है, सीखना ही है तो चरणों में सिर रखने की कोई भी जरूरत नहीं है अगर सीखना ही है तो सिर और सिर का संबंध होगा, चरणों और सिर के संबंध की क्या जरूरत है?

लेकिन, हमारी गुरु की धारणा कुछ और है। यह सिर्फ सीखना नहीं है, यह सिर्फ बौद्धिक आदान प्रदान नहीं है। यह संवाद बुद्धि का नहीं है, दो सिरों का नहीं है। क्योंकि जो गहन अनुभव है, बुद्धि तो उनको अभिव्यक्त भी नहीं कर पाती। जो गहन अनुभव है, उनका संबंध तो हृदय से हो पाता है। बुद्धि से नहीं हो पाता। जो क्षुद्र बातें है, वे कही जा सकती हैं शब्दों में। जो विराट से संबंधित है, गहन से, ऊंचाइयों से, अनंत गहराइयों से, वे कही नहीं जा सकती शब्दों में, लेकिन प्रेम में अभिव्यक्त की जा सकती है। तो गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध है वह गहन प्रेम का है। शिक्षक और विद्यार्थी के बीच जो संबंध है वह लेनदेन का है, व्यावसायिक है, बौद्धिक है। गुरु और शिष्य के बीच का जो संबंध है, वह हार्दिक है।

ओशो

25/07/2022

जब हम स्कूल में पढ़ते थे उस स्कूली दौर में निब पैन का चलन जोरों पर था..!

तब कैमलिन और चेलपार्क की स्याही प्रायः हर घर में मिल ही जाती थी, कोई कोई टिकिया से स्याही बनाकर भी उपयोग करते थे और जिन्होंने भी पैन में स्याही डाली होगी वो ड्रॉपर के महत्व से भली भांति परिचित होंगे !

महीने में दो-तीन बार निब पैन को खोलकर उसे गरम पानी में डालकर उसकी सर्विसिंग भी की जाती थी और लगभग सभी को लगता था की निब को उल्टा कर के लिखने से हैंडराइटिंग बड़ी सुन्दर बनती है।

हर क्लास में एक ऐसा एक्सपर्ट होता था जो पैन ठीक से नहीं चलने पर ब्लेड लेकर निब के बीच वाले हिस्से में बारिकी से कचरा निकालने का दावा कर लेता था!!!

दुकान में नयी निब खरीदने से पहले उसे पैन में लगाकर सेट करना फिर कागज़ में स्याही की कुछ बूंदे छिड़क कर निब उन गिरी हुयी स्याही की बूंदो पर लगाकर निब की स्याही सोखने की क्षमता नापना ही किसी बड़े साइंटिस्ट वाली फीलिंग दे जाता था..!

निब पैन कभी ना चले तो हम सभी ने हाथ से झटका देने के चक्कर में आजू बाजू वालों पर स्याही जरूर छिड़कायी होगी!!

कुछ बच्चे ऐसे भी होते थे जो पढ़ते लिखते तो कुछ नहीं थे लेकिन घर जाने से पहले उंगलियो में स्याही जरूर लगा लेते थे, बल्कि पैंट पर भी छिड़क लेते थे ताकि घरवालों को देख के लगे कि बच्चा स्कूल में बहुत मेहनत करता है!!

भूली हुइ यादें....

20/06/2022

आप 5 स्टार होटल में जाते हैं वहाँ आप कोई अल्ट्रा लक्जरी डिश ऑर्डर करते हैं जिसकी कीमत हजारों में हो ....
वेटर उस महँगी डिश को 10 पैसे के डिस्पोजल में ले आये जिसमें गंदी सी प्लास्टिक की चम्मच हो तो आपका रिएक्शन क्या होगा??
आपको वही डिश उस वेटर के मुँह पर मारने का मन करेगा।
अब एक चीज और मान लो, वेटर के साथ एक बंदा और आये जो आपको उस डिश की खूबी कुछ इस तरह बताये ...
डिअर सर् , इस डिश की कीमत 3499 रुपये है लेकिन इसके कच्चे माल की कीमत मात्र 40 रुपये हैं क्योंकि मेरे मालिक के ऊपर करोड़ो का लोन है तो तुम जैसे सूतिये से मुझे 40 रुपये की कीमत के 3499 रुपये कमाने हैं। आपको हमारे मालिक का लोन चुकाने में सहायता करने के लिए धन्यवाद।

अब बताओ आपका क्या रिएक्शन होगा ??
आप न केवल वो डिश उसके मुँह पर मारने का मन करेगा बल्कि उसे कूटने का भी मन करेगा।

इसके विपरीत वही डिश वेटर अगर अच्छे से प्लेट में सजा के लाता छुरी काँटे के साथ... और उसके साथ शेफ आता और उस डिश की खूबी आपको प्यारी सी मुस्कान के साथ समझाता तो कसम से आपको इतना प्यार आता उस शेफ और वेटर पर कि खुशी के मारे उसकी पुच्ची लेने का मन करता ...
आप खुशी खुशी वो डिश खाते और जाते समय अच्छी सी टिप वेटर को देके जाते।

अब आप बताओ दोनों केस में जो डिश थी वो सेम थी पर अन्तर कहाँ आ गया? उसके प्रेजेंटेशन में .... इसलिए पहले केस में जहाँ आपको उसे कूटने का मन कर रहा था वहीं दूसरे केस में पुच्ची लेने का, एक ही डिश के लिए।

"अग्निपथ" योजना बिल्कुल इस 5 स्टार होटल के डिश की तरह है। ये एक बहुत जबरदस्त योजना है जो देश की दिशा बदलने की काबिलियत रखती है। लेकिन उसका प्रजेंटेशन ऐसा हुआ है कि एक बड़ा वर्ग आग लगाने पर उतारू है।
अब आप बोलोगे कि प्रेजेंटेशन में क्या कमी थी ??

तो सुनो सरकार के जो चरण चाटक न्यूज़ चैनल हैं उन्हीं ने ऐसी तैसी कराई ... ज़ी न्यूज़ पर सुधीर चौधरी प्रेजेंटेशन देके बता रहा था कि डिफेंस का 50% बजट सैलेरी और पेंशन पर बर्बाद जाता है .... इस मास्टर योजना से मोदी जी ने एक झटके में इतने रुपये बचा लिए... आप समझ रहे हो शब्दों की मर्यादा देखो सैलेरी और पेंशन पर खर्च नहीं बर्बाद हो रहे हैं ... तो इसका msg आम लोग में क्या जाएगा ?? यही तो जाएगा कि सरकार आर्मी की नौकरी 4 साल कर रही है .. यही सेम Rnडी रोना लगभग हर न्यूज चैनल ने शुरू कर दिया कि इतने पैसे बचेंगे , मास्टर स्ट्रोक फलाना स्ट्रोक ....आर्मी को पालने में इतना खर्च आता है ब्ला ब्ला ....
अग्निपथ योजना के असली फायदे तो दब गए लेकिन उसके नकारात्मक पक्ष जबरदस्त तरीके से फैल गए ... बिल्कुल उस 5 स्टार होटल के डिश की तरह। इसीलिए इतना गुस्सा युवाओं को आ रहा है।

जब कि इस योजना का दूसरा प्रेजेंटेशन बहुत सिंपल सा हो सकता था। जैसे ...
सरकार ने एक योजना निकाली है, जिसमें 4 साल की डिग्री होगी जैसे BE, बीटेक या बीएससी की होती है ... इस चार साल के दौरान आर्मी का पूरा प्रशिक्षण मिलेगा जैसे इंजीनियरिंग कॉलेज में इंजीनियर को मिलता है ... और डबल फायदा ये कि सरकार इस योजना के कोई पैसे नहीं लेगी बल्कि 20-30 हजार रुपये स्टाइपेंड के तौर देगी ...( यहाँ ध्यान रखने वाली बात ये की स्टाइपेंड शब्द का उपयोग होना न कि सेलेरी , क्योंकि एक एक शब्द बहुत जरूरी होता है वरना अर्थ का अनर्थ हो जाता है) और जो चार साल पूरा कर लेगा उनमें से 25% को सरकार सीधा सेना में भर्ती का भी मौका देगी जिसकी बाकायदा परीक्षा होगी 4 साल के बाद .... और तीसरा सबसे बड़ा फायदा ये होगा कि जो वो परीक्षा पास भी नहीं कर पायेगा उसे सरकार 11 लाख रुपये नगद भी देगी ... चौथा फायदा ट्रेनिंग के दौरान अगर असली युद्ध में जाने की जरूरत पड़ी और कोई बालक जान गँवाता है तो उसे एक सैनिक की तरह ही शहीद का दर्जा मिलेगा और उसके परिवार को एक करोड़ रुपये मिलेंगे ।।।।

अगर इस योजना को इस तरह प्रेजेंट किया जाता तो यकीन मानो जो लड़के अभी रेलवे ट्रैक पर उतरे हैं वो सच में मोदी जी की फ़ोटो लगा के पूजा कर रहे होते .... कि देखो सरकार फ्री में डिग्री , फौजी ट्रेनिंग और लाखों रुपये अलग से देगी और आर्मी में भर्ती का मौका भी देगी।

तब किसी को ये भ्रम फैलाने का मौका ही नहीं मिलता कि आर्मी की भर्ती बंद होने वाली है या आर्मी वालों का कैरियर 4 साल का होने वाला .... उल्टा बच्चे खुश होते कि सरकार हमारी सहायता ही कर रही है आर्मी भर्ती के लिए।

सोशल मीडिया बंदर के हाथ में उस्तरा के समान है जहाँ अफवाहें और भ्रम 100 गुना तेजी से फैलती हैं और फैक्ट्स और सच दबा रह जाता है ... सरकार को अपना दिमाग खुला रखना चाहिए कि कौन सी बात किस तरह फैल सकती है वरना हर बार मुँह की खानी पड़ेगी।

उस फाइव स्टार डिश की तरह अग्निपथ योजना बहुत जबरदस्त है लेकिन इसके प्रेजेंटेशन ने इसे गोबर बना दिया ....
आज सब भाजपा समर्थक समझाने में लगे हैं कि इसके ये फायदे वो फायदे ... लेकिन अगर आनन फानन और जल्दबाजी और बिना प्रॉपर तैयारी के अगर इसकी घोषणा न होती तो आज ये नौबत न आती .... अब तीर कमान से निकल चुका है विपक्ष ने इसे लपक भी लिया ... 🙏🙏🙏
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14/06/2022

मैने काफी बरसों पहले पढा था..!

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय।
#ढाई_अक्षर ्रेम के, पढ़े सो पंडित होय॥

अब पता लगा है कि, ढाई अक्षर है क्या..?
तब से सिर तो चक्कर खा रहा है,
पर मन शांत हो गया..!!

ढाई अक्षर के ब्रह्मा और, ढाई अक्षर की सृष्टि..!
ढाई अक्षर के विष्णु और, ढाई अक्षर की लक्ष्मी..!!

ढाई अक्षर के कृष्ण और,
ढाई अक्षर की कान्ता (राधा रानी का दूसरा नाम)..!
ढाई अक्षर की दुर्गा और, ढाई अक्षर की शक्ति..!!

ढाई अक्षर की श्रद्धा और, ढाई अक्षर की भक्ति..!
ढाई अक्षर का त्याग और, ढाई अक्षर का ध्यान..!!

ढाई अक्षर की इच्छा और, ढाई अक्षर की तुष्टि..!
ढाई अक्षर का धर्म और, ढाई अक्षर का कर्म..!!

ढाई अक्षर का भाग्य और, ढाई अक्षर की व्यथा..!
ढाई अक्षर का ग्रन्थ और, ढाई अक्षर का सन्त..!!

ढाई अक्षर का शब्द और, ढाई अक्षर का अर्थ..!
ढाई अक्षर का सत्य और, ढाई अक्षर की मिथ्या..!!

ढाई अक्षर की श्रुति और, ढाई अक्षर की ध्वनि..!
ढाई अक्षर की अग्नि और, ढाई अक्षर का कुण्ड..!!

ढाई अक्षर का मन्त्र और, ढाई अक्षर का यन्त्र..!
ढाई अक्षर की श्वांस और, ढाई अक्षर के प्राण..!!

ढाई अक्षर का जन्म और, ढाई अक्षर की मृत्यु..!
ढाई अक्षर की अस्थि और, ढाई अक्षर की अर्थी..!!

ढाई अक्षर का प्यार और, ढाई अक्षर का युद्ध..!
ढाई अक्षर का मित्र और, ढाई अक्षर का शत्रु..!!

ढाई अक्षर का प्रेम और, ढाई अक्षर की घृणा..!
जन्म से लेकर मृत्यु तक हम, बंधे हैं ढाई अक्षर में..!!

हैं ढाई अक्षर ही वक़्त में और, ढाई अक्षर ही अन्त में..!
समझ न पाया कोई भी, है रहस्य क्या ढाई अक्षर में..!!

महापुरुषों की गूढ़ रहस्यों से भरी
भाषा को शत-शत नमन.🙏

♥️♥️♥️♥️♥️♥️

इस साल के यूपीएससी नतीजे देश के सामने हैं। टॉप 3 में देश की तीन बेटियों का नाम गूँज रहा है। श्रुति शर्मा को इस परीक्षा म...
03/06/2022

इस साल के यूपीएससी नतीजे देश के सामने हैं। टॉप 3 में देश की तीन बेटियों का नाम गूँज रहा है। श्रुति शर्मा को इस परीक्षा में पहला स्थान, अंकिता अग्रवाल को दूसरा और गामिनी सिंगला को तीसरा स्थान हासिल हुआ है। इन तीनों की कामयाबी सिर्फ़ इनकी कामयाबी नहीं है, बल्कि मुश्किलों के आगे हिम्मत ना हारने वाले हर इंसान की कामयाबी का सबक़ इनकी कहानियों में छुपा हुआ है। इस परीक्षा को टॉप करने वाली दिल्ली की श्रुति शर्मा को दूसरी कोशिश में कामयाबी मिली, लेकिन हम सबके लिए असली कहानी उनकी पहली कोशिश में है। श्रुति ने पिछले साल भी यह परीक्षा दी थी, तब ना कहीं ढोल नगाड़े थे और ना बधाई देने वालों का जमावड़ा। क्योंकि श्रुति पिछले साल की कोशिश में महज़ एक नंबर की कमी से यूपीएससी के इंटरव्यू में नहीं जा पाई थीं। असल में श्रुति यह एग्ज़ाम इंग्लिश में देना चाहती थीं, लेकिन फ़ॉर्म भरते हुए उन्होंने ग़लती से हिंदी के ऑप्शन को टिक कर दिया। नतीजतन उन्हें परीक्षा हिंदी में देनी पड़ी। लेकिन इस कोशिश से श्रुति ने यह सीखा कि जब मनचाही भाषा में ना लिखने पर भी वह महज़ एक नंबर से चूक गईं, तो अगली बार वह कामयाब ज़रूर होंगी और हुआ भी ऐसा ही। इस बार नतीजे निकले तो श्रुति ने इतिहास ही रच दिया। इस बार बधाई देने वालों की क़तार भी है और ढोल नगाड़े भी हैं। इन सबके बीच सबसे बड़ी सीख यह है कि नाकामयाबी में भी कामयाबी के बीज छुपे होते हैं, आपको पहचान होनी चाहिए।
इस कहानी से अलग दूसरे नाम पर आते हैं, अंकिता अग्रवाल। इन्हें इनके पहले ही प्रयास में कामयाबी मिल गई थी। कोलकाता की अंकिता अपनी पहली ही कोशिश में ना सिर्फ़ यूपीएससी पास करके आईआरएस अधिकारी बन गईं, बल्कि रैंक भी अच्छी लेकर आई थीं। लेकिन अंकिता अग्रवाल ने बचपन से देखा अपना आईएएस का सपना नहीं छोड़ा। लगातार कोशिशें कीं और आख़िरकार इस बार वह आईएएस भी हुईं और इस परीक्षा के इतिहास में उनका नाम भी दर्ज हो गया। अंकिता की कहानी लगातार चलते रहने की है। जो सपना देखा, उसके पूरे होने तक ना रुकने की है।
यूपीएससी के इस साल के नतीजे में तीसरे स्थान पर एक नाम जगमगा रहा है और वह है पंजाब की गामिनी सिंगला का। गामिनी ने कंप्यूटर साइंस इंजीनियरिंग (CSE) में B.Tech की पढ़ाई की है। उनका कहना है कि उन्होंने पढ़ाई भले ही इंजीनियरिंग की की है, लेकिन वह बचपन से ही IAS अधिकारी बनना चाहती थीं। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद ही वह यूपीएससी की तैयारी में जुट गईं थीं। गामिनी के पिता डॉक्टर हैं। लेकिन उन्हें मालूम था कि बेटी का सपना है एक दिन आईएएस बनना। इसके लिए ज़रूरी होता है टाइम मैनेजमेंट और यह कैसे किया जाता है, इसकी एक मिसाल देखिए। गामिनी ने अपने पढ़ाई के घंटे विषयों के हिसाब से बाँट रखे थे, लेकिन हर दिन की खबरों से अपडेट रहना भी बेहद ज़रूरी था। गामिनी को किसी और विषय का टाइम अख़बार पढ़ने में ना देना पड़े इसलिए उनके पिता उन्हें अख़बार पढ़कर सुनाते थे। अख़बार की खबरें सुनते-सुनते गामिनी नोट्स बनाने जैसे काम कर लिया करती थीं। अब जब पिता और बेटी की बरसों की मेहनत रंग लाई, तो दोनों की ख़ुशियों का ठिकाना नहीं रहा। गामिनी की कहानी को कामयाब बनाने में एक शानदार पिता का अहम रोल रहा।
ये सारी कहानियाँ आज महज़ दो दिन पहले तक शायद ही किसी को मालूम रही होंगी। लेकिन आज इनकी कामयाबी की खबर से शायद ही कोई अनजान हो। इसलिए अपने सपनों की तरफ़ बढ़ने के लिए कोशिश करते रहिए। क्योंकि अक्सर जीत उन्हीं की होती है, जो हार मानने से इंकार कर देते हैं।

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चित्र को एक बार गौर से देखिए भारतीय महिलाएं दंडवत प्रणाम क्यों नहीं करती हैं...ये है भगवान को प्रणाम करने का सही तरीका.....
03/06/2022

चित्र को एक बार गौर से देखिए
भारतीय महिलाएं दंडवत प्रणाम क्यों नहीं करती हैं...

ये है भगवान को प्रणाम करने का सही तरीका...

आपने कभी ये देखा है कि कई लोग मूर्ति के सामने लेट कर माथा टेकते है। जी हां इसी को साष्टांग दंडवत प्रणाम कहा जाता है।

शास्त्रों के अनुसार माना जाता है कि इस प्रणामें व्यक्ति का हर एक अंग जमीन को स्पर्श करता है। जो कि माना जाता है कि व्यक्ति अपना अहंकार छोड़ चुका है। इस आसन के जरिए आप ईश्वर को यह बताते हैं कि आप उसे मदद के लिए पुकार रहे हैं। यह आसन आपको ईश्वर की शरण में ले जाता है। लेकिन आपने यह कभी ध्यान दिया है कि महिलाएं इस प्रणाम को क्यों नहीं करती है। इस बारें में शास्त्र में बताया गया है। जानिए क्या..

शास्त्रों के अनुसार स्त्री का गर्भ और उसके वक्ष कभी जमीन से स्पर्श नहीं होने चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि उसका गर्भ एक जीवन को सहेजकर रखता है और वक्ष उस जीवन को पोषण देते हैं। इसलिए यह प्रणाम को स्त्रियां नहीं कर सकती है। जो करती भी है उन्हें यह प्रणाम नहीं करना चाहिए।🙏🙏🙏🙏💐💐💐💐🍫🍫🍫🍫

26/05/2022

पंचायत: प्रह्लाद को ये दुख क्यों मिला?

मैं एक परिवार को फेसबुक के ज़रिए जानता था। हसबैंड-वाइफ दोनों फेसबुक पर मुझसे जुड़े थे। पति-पत्नी के अलावा सात-आठ साल की बच्ची और चार-एक साल का बेटा। उनकी ज़िंदगी एक मिडिल क्लास परिवार का सुंदर विज्ञापन लगती थी। हर महीने एक-आध बार बाहर खाने जाना। साल मे एक-दो दफा घूमने जाना। हर वार-त्यौहार पूरी शिद्दत से मनाना।

पति पत्नी दोनों फेसबुक पर बच्चों की फोटो शेयर करते रहते थे। फिर चाहे वो छुट्टियों के बाद बच्चों के स्कूल जाने की हो। शरारत में पापा का चश्मा लगाए बच्ची की, या अपनी जीभ से आइसक्रीम चाटते छोटे बेटे की। सब कुछ वैसी ही चल रहा था जैसा एक नॉर्मल मिडिल क्लास फैमिली में चलता है। तमाम तस्वीरों को इकट्ठा कर बैकग्राउंड में सूदिंग म्यूज़िक लगा दिया जाए, तो बड़ी प्यारी से शॉर्ट फिल्म बन जाए।

फिर पिछले साल कोरोना के वक्त पति-पत्नी के अकाउंट पर अचानक Activity गायब हो गई। कुछ दिन और दिन नहीं दिखे तो बेचैनी हुई। एक Mutual Friend, जोकि उनके पारिवारिक मित्र भी थे, उनसे इस बारे में पूछा तो पता चला कि पति-पत्नी दोनों को कोरोना हो गया है। हालत काफी खराब है। दो-तीन दिन से घर पर ही थे। कल जैसे-तैसे अस्पताल में भर्ती करवाया है। बच्चे दूर के किसी रिश्तेदार के यहां हैं।

फिर दो दिन बाद ख़बर आई कि हसबैंड की डेथ हो गई। अगले दिन पता चला कि पत्नी भी नहीं रही…हंसता-खेलता परिवार चंद दिनों में बर्बाद हो गया। ये कोई ऐसा पहला परिवार नहीं था। कोरोना की वक्त न जाने कितने बच्चों ने अपने मां या बाप को खोया, और कितनों ने मां-बाप दोनों को।

ये बच्चे न इतने बड़े दार्शनिक हैं कि जीवन-मरण के सवाल पर सोचकर खुद के लिए कोई तसल्ली ढूंढ पाएं। न इनका कोई सोशल सर्कल है कि अपने दोस्तों से बात कर अपना गम भुला पाएं। ये 5-7 साल के बच्चे थे। जो मां-बाप को याद करके सिर्फ रोए। बहुत रोए। महीनों रोए। आज भी रोते हैं। जब बड़े होंगे तब भी जब-तब याद करके रोएंगे और भगवान से ज़रूर पूछेंगे कि उसने उनके साथ ऐसा क्यों किया। वो पूछेंगे, मगर सामने से कोई जवाब नहीं आएगा और आज तक कभी आया भी नहीं...इसका जवाब हमें खुद तलाशना पड़ता है।

अपनी बीमारी का पता लगने पर इरफान ने जो पहला पोस्ट किया था उसमें उन्होंने Margaret Mitchell की मशहूर पंक्ति को कोट करते हुए लिखा था, Life is under no obligation to give us what we expect." जीवन की ऐसी कोई मजबूरी नहीं कि वो हमें वो दे जिसकी हम उससे उम्मीद करते हैं।

उनके मायने ही ये ही थे कि उनके साथ ये क्यों हुआ, कैसे हुआ…किसलिए हुआ...क्यों ईश्वर ने उन्हें इस दुख के लिए चुना वो नही जानते। और ईश्वर की कोई मजबूरी भी नहीं कि उन्हें कोई सफाई दे! और यही जीवन की सबसे बड़ी और कड़वी सच्चाई है।

ज़िंदगी आपके साथ कितनी ही नाइंसाफी क्यों न करे, आप उसके खिलाफ किसी अदालत में केस नहीं कर सकते। वो हमें कितने भी ज़ोर से पटक कर नीचे क्यों न मारे हमें उठ खड़े होकर आगे बढ़ना ही होता है।

लोग शिकायत कर रहे हैं पंचायत के मेर्कस ने प्रह्लाद चाचा के साथ अच्छा नहीं किया। वो ग्रामीण परिवेश पर बनी, सीधे-सादे किरदारों से सजी एक हल्की-फुल्की सीरीज़ देख रहे थे, अचानक उसके इतने प्यार किरादर को इतना बड़ा दुख देकर राइटर्स ने उनका सीना छलनी कर दिया।

उस बेचारे का तो पहले ही इस दुनिया में कोई नहीं था। मां-बाप पहले ही गुज़र चुके थे। बीवी भी कई साल पहले चल बसी थी और अब उसके जवान बेटे की मौत दिखाकर मेकर्स ने ऐसा दुख दे दिया है जो बर्दाश्त से बाहर है।

कुछ तो यहां तक कह रहे हैं कि मेकर्स ने पहले प्रह्लाद को बेचारा दिखाने का ताना बाना बुना और बाद में जानबूझकर उसे इतना बड़ा दुख दिया ताकि जनता को रुला सकें।

ईमानदारी से कहूँ तो मैं इन आपत्तियों से इत्तेफाक नहीं रखता। मेरा मानना है कि कहानी असल हो या काल्पनिक… आप कभी दुखों को Avoid करके ज़िंदगी का असली मतलब नहीं समझ सकते। बल्कि उसकी असल मायने इस बात में हैं कि इन दुखों को झेलते हुए हम किस तरह अपने जीवन में सार्थकता तलाशते हैं।

उसी तरह जैसे अपनी प्रेमिका की मौत के बाद मसान का दीपक चौधरी (विक्की कौशल) तलाशता है। मसान में दीपक और शालू की प्रेम कहानी छोटी होते हुए भी मेरी नज़र में हिंदी फिल्मों की सबसे Intense प्रेम कहानी है। जिस सीन में दीपक को शालू की मौत का पता लगता है वो हिंदी फिल्मों को सबसे ताकतवर सीन है। मगर जिस तरह उस दुख के बाद वो धीरे-धीरे खुद को सम्भालता है। अपनी ज़िंदगी को पटरी पर लाने की कोशिश करता है और आखिरी सीन में उसका और देवी का एक साथ घाट पर पहुंचना हमें एक उम्मीद देकर जाता है।

दर्शक के तौर पर आप चाहें तो ये शिकायत कर सकते हैं कि दीपक और शालू की प्रेम कहानी इतने खूबसूरत तरीके से चल रही थी ऐसे में लेखक-निर्देशक ने शालू को मारकर दर्शकों को ये दुख क्यों दिया। ऐसा करके वो हमें नाउम्मीद क्यों कर रहा है। बेशक कर रहा है। मगर वो नाउम्मीद इसलिए कर रहा है क्योंकि वो आपको बताना चाहता है कि दुख कितना भी बड़ा क्यों न हो उसके लिए जीवन का प्रवाह रोका नहीं जाता। आप रोकना चाहें, तो भी रोक भी नहीं सकते। उसे भुलाकर ही हमें ज़िंदगी का मकसद तलाशना ही होता है।

कुछ दिन पहले एक फेसबुक मित्र ऑफिस में मिलने आए थे। उन्होंने बताया कि कैसे वो पिछले कई सालों से अपनी मां के साथ रह रहे थे। मदर यूपी में एक कॉलेज में प्रोफेसर थीं। वो गुड़गांव में जॉब करते थे। बहन की शादी हो चुकी थी। पिता को उन्होंने कभी देखा ही नहीं। उनकी मां ही उनके लिए सब कुछ थी। वीकएंड होते ही वो मां के साथ दो दिन बिताने घर आ जाते थे।

कोरोना के बाद वर्क फ्रॉम होम होने के बाद तो वो पूरी तरह से घर पर ही थे। फिर उन्होंने बताया कि कैसे पिछले साल कोरोना में उनकी मां बिना ठीक इलाज मिले गुज़र गई। मां को गुज़रे एक साल हो चुका है मगर वो आज तक नॉर्मल नहीं हो पाए थे। उनसे बात करके लगा कि वो काफी डिप्रेशन में थे। तीस के करीब उम्र हो चुकी थी लेकिन उन्होंने अभी तक शादी भी नहीं की थी। समझ नहीं पा रहे थे कि मां के जाने के बाद वो किसके लिए जिएं..उनकी ज़िंदगी का मकसद क्या है?

शब्द कितने भी चमकदार क्यों न हों, बातें कितनी भी खूबसूरत क्यों न लेकिन आप ऐसी आदमी को कभी तसल्ली नहीं दे सकते जिसने अपनी मां को खोया हो। दुनिया में ऐसा कोई पेन किलर नहीं है जो इस दर्द को एक झटके में खींच सके।

मैंने भी कुछ इधर-उधर की बात की। उन्हें हौसला देने की कोशिश की और आखिर में यही कहा कि मुझे लगता है कि दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है इंसान और दुनिया का सबसे बड़ा समाधान है, इंसान।

एक औरत जो सुबह से शाम तक घर के काम करती है, बच्चे संभालती है, कम पैसों में खर्च चलाती है। बच्चों और घर की मजबूरी में काम पर न जाने की घुटन भी सहती है लेकिन उसे अगर ये भरोसा है कि उसका पति उसे प्यार करता है, उसकी परवाह करता है, तो ये भरोसा उसे इतना हौसला देता है कि वो सारे दुख दर्द सह लेती है।

भले ही आपके पास इतने पैसे न हों कि अपने बच्चे को हर ऐश करवा सकें लेकिन अगर आपके पास उसे देने के लिए वक्त है, तो ये वक्त और आपका प्यार ही उसको मिला सबसे बड़ा तोहफा है।

एक अच्छा बॉस ऑफिस में 50 लोगों की सुकून की वजह होता है। एक खुशनुमा दोस्त अपने सर्कल में दस लोगों का मूड अच्छा करता है।

मैंने उसे यही सलाह दी कि वो खुद को संभाले। सेहत पर ध्यान दे। जल्द शादी करे ताकि अपने प्यार से एक लड़की की ज़िंदगी खूबसूरत बना सके। कल को पिता बनकर कुछ बच्चों को अच्छी ज़िंदगी दे। इसलिए खुद को अकेला मत समझे। कमज़ोर मत समझे। अफ्रीकी कहावत है, अगर आपको लगता है आप इतने छोटे हैं कि कोई फर्क पैदा नहीं कर सकते, तो एक रात मच्छर के साथ सोने की कोशिश कीजिए!

मुझे लगता है कि प्रहलाद के बेटे की मौत उसकी कहानी का दुखांत नहीं है…इस दुख से बाहर निकलने के उसके प्रयास उसकी कहानी को ज़्यादा सार्थकता देंगे। हो सकता है आगे चलकर वो किसी अनाथ बच्चे को Adopt कर उसकी और अपनी ज़िंदगी का खालीपन दूर कर पाए। दोनों को ज़िंदगी को नया मतलब दे पाए।

ऐसा होगा तो जिस प्रह्लाद को देखकर आप आज दुखी हो रहे हैं कल उसी प्रह्लाद को हंसता देख आपको सुकून मिलेगा और शो की वही सकारात्मकता लौट आएगी जिसके लिए आप इसे देखते हैं। लेकिन दर्शक के नाते अगर आप ये शर्त रख दें कि मुझे Emotionally Disturb किए बिना खुश करो तो माफ कीजिए सिनेमा या साहित्य ऐसे काम नहीं करते।

चाहे विल स्मिथ की Pursuit of Happiness हो या टर्किश फिल्म Miracle in Cell No 7 ...इन फिल्मों को देखते हुए आप आंसुओं में डूब जाते हैं। बीच फिल्म आपको लगेगा है कि मैं इतना दुख बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा। मगर इन्हीं फिल्मों का अंत आपको ऐसी असीम खुशी देता है जो दुनिया की कोई Feel Good मूवी नहीं दे सकती।

मनोविज्ञान कहता है इंसान उन चीज़ों को सबसे ज़्यादा याद रखता है जो उसे Emotionally Arouse करती है...उसे भावनात्मक तौर पर गहरे तक छूती हैं। मनोविज्ञान का यही नियम हर साहित्य, लेखन, सिनेमा में लागू होता है। हंसाने या रूलाने का यही फॉर्मूला विज्ञापनों में लागू होता है, अच्छे लेखक करते हैं, राजकुमार हिरानी भी इस फॉर्मूले पर फिल्में बनाते हैं। अगर उसे Positively इस्तेमाल किया जाए, तो वो चमत्कार करता है।

मशहूर पत्रकार अरूण शौरी जी बेटा Cerebral palsy से पीड़ित है। अपने बेटे की बीमारी, उससे जुड़े अनुभव पर अरूण जी ने बहुत कुछ लिखा है। एक बार स्पेशल चाइल्ड को पालने, उसको बड़ा करने की चुनौतियों और इससे जुड़ी कड़वाहट और दुख पर बात करते हुए उन्होंने कहा था कि बौद्ध धर्म में कही ये बात ही मुझे हमेशा राह दिखाती है।

बुद्ध कहते हैं...एक किसान खेतों में पानी देता है, एक तीरंदाज़ अपने तीर पैने करता है, एक बढ़ई लकड़ी को आकार देता है और एक चेतनशील शख्स अपने अपने भावों का मालिक बनता है! अपने दुख-सुख पर विजय पाता है।

सुख-दुख पर बात करते हुए लेबनान के मशहूर दार्शनिक, कवि और चित्रकार खलील जिब्रान ने अपनी किताब Prophet में बड़ी खूबसरत बात लिखी है जिसे मैं यहां ज्यों का त्यों दे रहा हूं। इस विषय पर इससे खूबसूरत कुछ नहीं कहा गया।

तुम्हारे अंदर दुख जितनी गहराई तक पहुंचता है, उतना ही अधिक तुम सुख का अनुभव कर सकते हो।

क्या वह प्याला जिसमें शराब भरी हुई है, वही प्याला नहीं है जिसे कुम्हार के यहां भट्टी में पकाया गया था ?

क्या वह बांसुरी वही लकड़ी नहीं है, जिससे तुम्हारी आत्मा को शांति प्राप्त होती है
और जिसमें चाकुओं से छेद किए गए थे ?

जब तुम आनंदित हो जाओ तो अपने दिल की गहराई में झांककर देखो और तुम देखोगे कि जो तुमको सुख दे रहा है, वह वही है, जिसने तुमको दुख दिया है।
जब तुम दुखी हो जाओ तो दोबारा अपने दिल में देखो और तब तुम देखोगे कि वास्तव में तुम उसके लिए रो रहे हो, जो तुम्हारा सुख रहा है।

तुममें से कुछ लोग कहते हैं, 'दुख की अपेक्षा सुख श्रेष्ठ है' और कुछ कहते हैं, 'नहीं, दुख ही श्रेष्ठ है।' लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि ये दोनों की अपृथकनीय है अर्थात् उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।

ये साथ-साथ आते हैं औऱ जब उनमें से एक भोजन के समय तुम्हारे साथ बैठा है तो याद रखो कि दूसरा तुम्हारे बिस्तर पर सो रहा है।

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