07/12/2021
चरैवेति-चरैवेति...
एक शब्द में जीवन का चित्र खींचना हो तो वह है यात्रा। इसीलिए जीवन के क्रम को जीवनयात्रा कहा जाता है। यात्राओं का महत्व हर धर्म में है। हिंदू धर्म में तीर्थयात्रा का उद्देश्य केवल पुण्यलाभ तक सीमित नहीं है, वास्तव में यह देश की बहुरंगी प्रकृति को देखने और
एक शब्द में जीवन का चित्र खींचना हो तो वह है यात्रा। इसीलिए जीवन के क्रम को जीवनयात्रा कहा जाता है। यात्राओं का महत्व हर धर्म में है। हिंदू धर्म में तीर्थयात्रा का उद्देश्य केवल पुण्यलाभ तक सीमित नहीं है, वास्तव में यह देश की बहुरंगी प्रकृति को देखने और एक ही धारा में रची-बसी असंख्य संस्कृतियों को समझने का एक उपक्रम भी है।
नव जीवन यात्राओं का ही परिणाम है। सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार परमात्मा से अलग हुई जीवात्मा, चौरासी लाख योनियों का भ्रमण करते हुए मानव शरीर धारण करती है। मानव जीवन में यह अपनी सांसारिक जिम्मेदारियों को निभाने के बाद परमात्मा से पुनर्मिलन के अंतिम पडाव पर पहुंचती है। इसी पडाव से शुरू होती है, मोक्ष के लिए सबसे महत्वपूर्ण यात्रा। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के चार चरणों से होकर मानव इस यात्रा पथ पर आगे बढता जाता है। शायद यही कारण है कि प्रत्येक देश-काल के मनुष्य को यात्रा से स्वाभाविक लगाव रहा है। घर, परिवार, गांव और शहर से बाहर निकलकर अपने परिवेश, देश, दुनिया को देखने की चाह ने ही वसुधैव कुटुंबकम की परिकल्पना की होगी। इसी चाह ने मनुष्य को भीषण कष्ट सहकर नदी-नाले, पर्वत-खाइयां पार करके अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए प्रेरित किया होगा।
भारतीय मनीषा ने हजारों साल पहले ही यात्राओं के इस महत्व को जान-समझ लिया था। इसीलिए हमारे संस्कृत ग्रंथों में अनेक ऐसे प्रसंग भरे पडे हैं, जिनमें यात्राओं का सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व प्रकट होता है। ब्रह्मा जी के पुत्र नारद तो 'कहीं भी, कभी भी पहुंचने में सक्षम हैं। तीनों लोकों की सैर करना उनके लिए बाएं हाथ का खेल है। सभी देवी-देवताओं के साथ वाहन के रूप में किसी न किसी प्राणी का जुडे रहना भी यही साबित करता है। विष्णु के साथ गरुड तो शिव के साथ नंदी, लक्ष्मी के साथ उल्लू और सरस्वती के साथ हंस, दुर्गा का वाहन शेर, गणेश का मूषक, कार्तिकेय के साथ मोर जनमानस में स्थायी हो गए हैं। यह भी वास्तव में इस बात का प्रतीक है कि ये सभी देवी-देवता भी प्राय: यात्रा करते रहते होंगे। इतना ही नहीं, विष्णु जी के त्रेता युग में अवतार भगवान श्रीराम चंद्र तथा द्वापर में श्रीकृष्ण भी यात्राओं के लिए लालायित रहते थे। चाहे घर से गुरुकुल जाना हो या पिता के आदेश पर 14 वर्ष के वनवास या कृष्ण का मथुरा-वृंदावन से द्वारका की यात्रा। चाहे महात्मा बुद्ध हों, या महावीर स्वामी, सभी अपने-अपने ढंग से किसी-न-किसी कारणवश यात्रा करते रहे।
हमारे वैज्ञानिक ऋषि-मुनि अखिल ब्रह्मांड के रहस्यों पर से पर्दा उठाने के लिए आजीवन शोधरत रहे। उन्होंने पुराणों में चौदह लोकों का उल्लेख किया है। ये चौदह लोक हैं - भू: (पृथ्वी लोक), भुव: (वह लोक जो भूमि और सूर्य के अंतर्गत है, अंतरिक्ष), स्व: (स्वर्ग या देव लोक), मह: (महालोक), जन: (महालोक के ऊपर का लोक), तप:, और सत्य (सबसे ऊपर का लोक, जिसमें ब्रह्मा जी रहते हैं)। ये सात पृथ्वी के ऊपर के लोक हैं और अतल, सुतल, वितल, गभस्तिमत, महातल, रसातल और पाताल - ये सात पृथ्वी के नीचे के लोक। इसके अलावा वैकुंठ लोक (विष्णु लोक), गोलोक (श्रीकृष्ण का निवास स्थान, जो सब लोकों से ऊपर माना जाता है), इंद्र लोक, चंद्र लोक, नाग लोक आदि की भी चर्चा होती है। यह इस बात का साक्षात प्रमाण है कि भारत में यात्रा केवल धरती तक न मानकर, अन्य लोकों तक भी मानी जाती थी।
प्राचीन भारत में तीर्थयात्राओं का बडा महत्व था। ये यात्राएं प्राय: पैदल ही की जाती थीं। मार्ग कष्टकर होते थे, सुविधाएं नाममात्र की थीं। फिर भी धर्म में आस्था होने के कारण लोग कष्टों की परवाह न करते हुए यात्राएं करते थे। कालांतर में यात्राओं के इसी महत्व को ध्यान में रखते हुए केरल में जन्मे, अद्वैत मत के प्रवर्तक आदि शंकराचार्य ने चार धाम की यात्रा की परिकल्पना की। उन्होंने भारत के चार कोनों - उत्तर में बद्रीनारायण धाम, दक्षिण में रामेश्वरम, पूर्व दिशा में जगन्नाथ पुरी तथा पश्चिम में द्वारका धाम स्थापित किए। चार धाम की ये यात्राएं जहां जीवन की एकरसता को दूर करती थीं, वहीं व्यक्ति को अपने राष्ट्र को जानने-पहचानने, उससे जुडऩे, उसे प्रेम करने का भी अवसर प्रदान करती थीं। इन यात्राओं से सुदूर दक्षिण भारत के उष्ण समुद्रतटीय प्रदेशों में रहने वाला भारतीय उत्तर में हिमालय की हिमाच्छादित चोटियां देखता, तो रोमांचित हुए बिना नहीं रहता। इसी प्रकार उत्तर भारत में रहने वाला कडकती सर्दी के मौसम में दक्षिणी, पूर्वी या पश्चिमी भारत में स्थित समुद्रतटीय प्रदेशों में जाकर वहां गरमी का मौसम पाता तो शायद दांतों तले अंगुली दबा लेता होगा।
ये यात्राएं मानव को प्रकृति की गोद में जाने का अवसर देती हैं, भारत के विविधतायुक्त भोजन, भाषा, वेशभूषा, जलवायु, जीव-जंतुओं से परिचित करवाती हैं, वहीं भारतीय संस्कृति की अनेकता में विद्यमान एकता के तत्वों का भी ज्ञान करवाती हैं।
इन यात्राओं का आध्यात्मिक, सामाजिक, धार्मिक महत्व तो है ही, आर्थिक दृष्टि से भी अत्यंत लाभदायक हैं। इन यात्राओं के कारण ही पर्यटन एक व्यवसाय से आगे बढकर उद्योग में परिणत हो जाता है। आज पूरे विश्व में पर्यटन उद्योग में लाखों लोगों को रोजगार मिला है, बडी परिवहन कंपनियों, होटलों से लेकर छोटे-छोटे व्यवसायियों, लघु उद्यमियों के लिए भी पर्यटन एक दुधारू गाय है।
यात्रा से मिलने वाला सुख एक अलग ही प्रकार का होता है, इसे हम आध्यात्मिक सुख कह सकते हैं। यह आध्यात्मिक सुख इतना अधिक होता है कि इससे यात्रा के दौरान हुई सारी शारीरिक थकान पल भर में गायब हो जाती है। शायद यही कारण है कि शिशु से लेकर वृद्ध तक प्रत्येक व्यक्ति यात्रा का नाम सुनते ही हर्षोल्लास से भर जाता है। गोद में रहने वाले शिशु को जब कहते हैं कि चलो घूमने चलते हैं, तो वह तुरंत बांहें उठाकर चलने को तैयार हो जाता है।
बच्चों के लिए तो यात्राएं सुख का आगार होती हैं। बच्चे दो-चार दिन की यात्रा से खेल-खेल में जितना सीख जाते हैं, उतना कभी कक्षा में महीनों बैठकर भी नहीं सीख पाते। यात्रा से बच्चों में उत्तरदायित्व की भावना, सहनशीलता, समायोजन, सहयोग का भाव विकसित होता है। वे जीवन में आने वाली कठिन चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हो जाते हैं। यात्रा के दौरान कभी खाना अच्छा नहीं मिलता, कभी सोने की जगह ठीक नहीं होती, फिर भी बच्चों को मजा आता है, वह क्या है? वही तो है - यात्रा का आध्यात्मिक सुख। इसीलिए स्कूल-कॉलेज में शैक्षिक भ्रमण का विशेष महत्व है।
इसी प्रकार घर के किसी बुजुर्ग को तीर्थ यात्रा पर चलने के लिए कहें तो वह अपने सब दर्द-परेशानी भूलकर युवाओं की भांति उत्साह और बच्चों जैसी चपलता से भर जाता है। जो थोडी दूर चलने पर हांफने लगता है, वही पहाडों की चढाई भी हंसते-हंसते चढ जाता है। सदा गंभीर तथा चुप रहने वाले भी यात्रा के दौरान चुटकले-शेरो-शायरी सुनाते, हंसते-गाते नजर आते हैं।
वैसे तो यात्राएं किसी भी उम्र में की जा सकती हैं, किंतु युवावस्था यात्रा के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होती है। इस अवस्था में असीम ऊर्जा, उत्साह, जोश, जिज्ञासा तथा सहनशीलता होती है। वह कुछ नया जानने-करने के लिए उत्सुक होता है, उसे ख्ातरों से लगाव होता है, प्रकृति उसे सम्मोहित करती है, उसकी कल्पनाओं में नए रंग भरती है। यात्रा का उद्देश्य और स्थान भी उसके प्रभाव को निर्धारित करता है। धार्मिक उद्देश्य से की गई यात्रा के दौरान भीतर एक अनोखी शक्ति का अहसास होता है। अमरनाथ, कैलाश-मानसरोवर जैसी कठिन एवं जोखिम भरी यात्राएं, जिनमें कभी चट्टान फिसलने तो कभी बर्फीले तूफान के रूप में कदम-कदम पर ख्ातरे सामने आ जाते हैं, भी लोग धार्मिक आस्था के कारण सहज ही कर लेते हैं। ऐतिहासिक स्थलों की यात्रा विशेष रूप से ज्ञानवर्धक होती हैं, तो व्यावसायिक यात्राएं आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद होती हैं। पर्वतीय प्रदेश की यात्रा जहां हमें प्रकृति के मनमोहक रूप से जोडती है, तो रेगिस्तान तथा समुद्री इलाकों की यात्राएं हमें एक दूसरे ही लोक में ले जाती हैं।
प्राचीन काल में यात्रा के लिए साधन सीमित थे। तब केवल राजा-महाराजा या धनी लोग ही घोडे, हाथी या रथ से यात्रा कर पाते थे। अधिकतर लोग तो पैदल ही लंबी यात्राएं किया करते थे। इसीलिए तीर्थयात्रा में महीनों लगते थे। कुछ जगहों के लिए तो लोग घर से जाते समय अंतिम विदा लेकर ही जाते थे कि शायद वापस न आ पाएं। समय के साथ-साथ वाहनों का प्रयोग बढा। बैलगाडी, नाव से आगे बढते-बढते मनुष्य ने कार, बस, रेलगाडी, पानी का जहाज, स्टीमर, हवाई जहाज आदि का इस्तेमाल यात्रा में करने से यात्रा सुगम, सुविधाजनक तो हो ही गई है, इसमें अब समय भी बहुत कम लगने लगा है। पदयात्रा एवं रथयात्रा का भी स्वरूप अब काफी बदल गया है।
यात्राएं विविध रूपों में मानव जीवन का अनिवार्य अंग रही हैं और रहेंगी। सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से ये यात्राएं मनुष्य को शारीरिक एवं मानसिक लाभ प्रदान करती हैं। यात्रा के बिना मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती क्योंकि जन्म से लेकर मृत्यु तक, जीवात्मा निरंतर यात्रा ही तो करती रहती है। लगातार चलते रहने की इस प्रक्रिया के लिए ही तो कहा गया है- चरैवेति-चरैवेति...।
बात एक बार की
साधु और दीया
एक बडे ज्ञानी राजा थे। राजमहल में भारी ठाट-बाट होते हुए भी वे उसमें लिप्त नहीं थे। एक साधु उनसे मिलने आए। राजा ने साधु का सम्मान किया और आने का कारण पूछा। साधु ने कहा, 'राजन, सुना है कि इतने ठाट-बाट के बीच रहते हुए भी आप इनसे अलग रहते हैं। मैंने वर्षों तप किया, फिर भी ऐसा न बन सका। आपने महल में रह कर ही यह कैसे साध लिया?
राजा ने कहा,'महात्मा जी! यह मेरा काम का समय है। आपके सवाल का जवाब मैं थोडी देर बाद दूंगा। तब तक आप इस दीये को लेकर मेरे महल को पूरा देख आएं। बस यह ध्यान रखें, दीया बुझने न पाए। बुझा तो आप रास्ता भूल जाएंगे।
साधु दीया लेकर राजमहल देखने चले। कई घंटे बाद लौटे तो राजा ने पूछा, 'कहें स्वामी जी, कैसा लगा महल?
साधु बोले, 'मैं आपके महल के हर भाग में गया। सब देखा, फिर भी अनदेखा रह गया।
राजा ने पूछा, 'क्यों?
साधु ने कहा, 'राजन, मेरा सारा ध्यान इस दीये पर लगा रहा कि कहीं बुझ न जाए!
राजा ने उत्तर दिया, 'महात्मा जी! मेरे साथ भी यही बात है। मेरा सारा ध्यान परमात्मा पर लगा रहता है। सारा राजकाज चलाते हुए एक ही बात सामने रहती है कि सब कुछ उसी का है और मैं जो कुछ कर रहा हूं, उसी के लिए कर रहा हूं।
डॉ. रवि शर्मा 'मधुप
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दादा नवगिरे
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