26/09/2023
जमील ख़ा साहब मेरे नाट्य दल रंगभूमि में नक्कारा वादन करते थे. ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ कि वे सिर्फ संगत के लिए आते हैं बल्कि रंगभूमि के सदस्य बन गए थे. जिस नाटक में काम करते थे, उनको उस नाटक के संवाद एवं अन्य चीज़ें याद हो जाती थीं. एक बार तो किसी कलाकार के न आने पर रोल करने के लिए तैयार हो गए थे. रंगभूमि के सभी कलाकार उनका बहुत सम्मान करते थे. उनके नक्कारे का बैग कोई न कोई सदस्य कहीं आने जाने पर अपने आप उठाकर चल पड़ता था. बच्चों के बीच में वो भी बच्चा बन जाते थे. रिहर्सल और शो में समय से पहले पहुँचकर अपनी तैयारी कर लेते थे. किस्सा मौजपुर के शो के समय बीमार थे तो उनको इतनी चिंता थी कि खुद एक नक्कारा वादक को खोजकर दिया और उसका पेमेंट भी खुद कर दिया था क्योंकि उनको पता था कि कुछ लोग शो के बाद तुरंत पेमेंट के लिए खड़े हो जाते हैं. इतने सालों में जमील साहब ने कभी पैसे की बात नहीं की, उनको बस यही था कि नक्कारा बजते रहना चाहिए. आज कि पीढ़ी को वे नक्कारा सिखाना भी चाहते थे. भानु, फ़हीम और सुधीर रिखारी जैसे सुर वाले कलाकारों को पाकर वे ख़ुशी से गदगद हो जाते थे. मैं भी जमील साहब के लिए अपने नाटकों में गीत संगीत के लिए जगह बनाता था. मृत्यु से कुछ दिन पहले उन्होंने कहा था कि अब मैं थोड़ा चलने फिरने लगा हूं, रंगभूमि के अगले शो में मैं नक्कारा बजाऊंगा. ईश्वर आपकी आत्मा को शान्ति प्रदान करें.