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धौलपुर का युद्ध मेवाड़ के राणा सांगा और दिल्ली सल्तनत के लोदी वंश के सुल्तान इब्राहिम लोदी के बीच लड़ा गया था। इस युद्ध ...
13/03/2024

धौलपुर का युद्ध मेवाड़ के राणा सांगा और दिल्ली सल्तनत के लोदी वंश के सुल्तान इब्राहिम लोदी के बीच लड़ा गया था। इस युद्ध में मेवाड़ की विजय हुई थी।

खतोली के युद्ध में राणा सांगा द्वारा इब्राहिम लोदी को हराने के बाद, लोदी सुल्तान बदला लेने की इच्छा से जलने लगा। उस समय मेवाड़ की सेना मालवा और गुजरात के सुल्तानों से युद्ध में व्यस्त थी।

धौलपुर के पास हुए इस युद्ध में, मेवाड़ की सेना ने एक सफल हमला किया और दुश्मन की फौज को हरा दिया। इस जीत के बाद राणा सांगा ने वर्तमान राजस्थान के अधिकांश हिस्सों को जीत लिया।

जब इब्राहिम लोदी की सेना राणा सांगा के राज्य में पहुंची, तो मेवाड़ के महाराजा अपने राजपूत सैनिकों के साथ युद्ध के लिए आगे बढ़े। दोनों सेनाएं धौलपुर के पास आमने-सामने आ गईं।

युद्ध की तैयारी करते हुए, इब्राहिम लोदी की सेना में मियाँ माखन, सैयद खान फुरात, हाजी खान, दौलत खान, अल्लाहदाद खान और यूसुफ खान जैसे योद्धा शामिल थे। युद्ध की शुरुआत में, राणा सांगा के नेतृत्व में राजपूतों ने घुड़सवार सेना का आक्रमण किया।

उनकी वीरता और युद्ध कौशल के कारण, राजपूत सेना ने जल्द ही इब्राहिम लोदी की सेना को परास्त कर दिया। युद्ध में कई बहादुर और योग्य योद्धा शहीद हो गए और अन्य बिखर गए। राजपूतों ने इब्राहिम लोदी की सेना को खदेड़ते हुए बायाना तक पहुंचा दिया।

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"456 वर्ष पूर्व आज ही के दिन हुआ था चित्तौड़ का तीसरा जौहर"23 - 24 फरवरी की अर्द्धरात्रि, 1568 ई.इस जौहर का नेतृत्व रावत ...
26/02/2024

"456 वर्ष पूर्व आज ही के दिन हुआ था चित्तौड़ का तीसरा जौहर"

23 - 24 फरवरी की अर्द्धरात्रि, 1568 ई.

इस जौहर का नेतृत्व रावत पत्ता चुण्डावत की पत्नी फूल कंवर जी ने किया

ये जौहर दुर्ग में 3 अलग-अलग स्थानों पर हुआ -

1 ) रावत पत्ता चुण्डावत के महल में
2 ) साहिब खान जी के महल में
3 ) ईसरदास जी के महल में

( फोटो में रावत पत्ताजी का महल दिखाया गया है, जो अब तक काला है )

अबुल फजल लिखता है "हमारी फौज 2 दिन से भूखी-प्यासी होने के बावजूद सुरंगों को तैयार करने में लगी रही। इसी दिन रात को अचानक किले से धुंआ उठता नजर आया। सभी सिपहसालार अंदाजा लगाने लगे कि अंदर क्या हुआ होगा, तभी आमेर के राजा भगवानदास ने शहंशाह को बताया कि किले में जो आग जल रही है, वो जौहर की आग है और राजपूत लोग केसरिया के लिए तैयार हैं, सो हमको भी तैयार हो जाना चाहिए"

रावत पत्ता चुण्डावत की आंखों के सामने उनकी माता सज्जन कंवर, 9 पत्नियों, 5 पुत्रियों व 2 छोटे पुत्रों ने जौहर किया।

दुर्ग में जौहर करने वाली कुछ प्रमुख राजपूत वीरांगनाओं के नाम इस तरह हैं -

> रानी फूल कंवर :- इन्होंने चित्तौड़ के तीसरे जौहर का नेतृत्व किया।

> सज्जन बाई सोनगरी :- रावत पत्ता चुण्डावत की माता

> रानी मदालसा बाई कछवाही :- सहसमल जी की पुत्री

> जीवा बाई सोलंकिनी :- सामन्तसी की पुत्री व रावत पत्ता चुण्डावत की पत्नी

> रानी सारदा बाई राठौड़

> रानी भगवती बाई :- ईसरदास जी की पुत्री

> रानी पद्मावती बाई झाली

> रानी बगदी बाई चौहान

> रानी रतन बाई राठौड़

> रानी बलेसा बाई चौहान

> रानी बागड़ेची आशा बाई :- प्रभार डूंगरसी की पुत्री

चित्तौड़ के तीसरे जौहर के प्रमाण स्वरुप भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने समिद्धेश्वर मन्दिर के पास सफाई करवाई तो राख और हड्डियां बड़ी मात्रा में मिलीं
सभी क्षत्राणी माताओ को शत शत नमन🙏🙏

25/02/2024

मैं बाड़मेर थार नगरी राजस्थान अपने सभी दोस्तों को मेरा पेज़ लाइक और कमेंट और शेयर करनें के लिए दिल से आपका सपोर्ट चाहता हूं 🙏🙏🙏

25/02/2024

#मै निम्बाराम सारन ऑफिसियल पेज में सभी दोस्तों का
स्वागत करता हूं।।

बहादुर शाह ज़फर (1837-1857) भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह थे और उर्दू के माने हुए शायर थे। उन्होंने 1857 का प...
04/02/2024

बहादुर शाह ज़फर (1837-1857) भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह थे और उर्दू के माने हुए शायर थे। उन्होंने 1857 का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया।
क्रांति में असफल होने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा(म्यांमार) भेज दिया जहाँ उनकी मृत्यु हुई।

बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्तूबर, 1775 में हुआ था। उनके पिता अकबर शाह द्वितीय और मां लालबाई थीं। अपने पिता की मृत्यु के बाद जफर 18 सितंबर, 1837 में मुगल बादशाह बने। यह दीगर बात थी कि उस समय तक दिल्ली की सल्तनत बेहद कमजोर हो गई थी और मुगल बादशाह नाममात्र के सम्राट रह गये थे।

भारत के प्रथम स्वतंत्रता - संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की ज़फर को भारी कीमत भी चुकानी पड़ी थी। उनके पुत्रों और प्रपौत्रों को ब्रिटिश अधिकारियों ने सरेआम गोलियों से भून डाला। यही नहीं, उन्हें बंदी बनाकर रंगून ले जाया गया, जहां उन्होंने सात नवंबर, 1862 में एक बंदी के रूप में दम तोड़ा। उन्हें रंगून में श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफनाया गया। उनके दफन स्थल को अब बहादुर शाह ज़फर दरगाह के नाम से जाना जाता है। आज भी कोई देशप्रेमी व्यक्ति जब बर्मा (म्यंमार) की यात्रा करता है तो वह ज़फर के मजार पर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि देना नहीं भूलता। लोगों के दिल में उनके लिए कितना सम्मान था उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हिंदुस्तान में जहां कई जगह सड़कों का नाम उनके नाम पर रखा गया है, वहीं पाकिस्तान के लाहौर शहर में भी उनके नाम पर एक सड़क का नाम रखा गया है। बांग्लादेश के ओल्ड ढाका शहर स्थित विक्टोरिया पार्क का नाम बदलकर बहादुर शाह ज़फर पार्क कर दिया गया है।

1857 में जब हिंदुस्तान की आजादी की चिंगारी भड़की तो सभी विद्रोही सैनिकों और राजा-महाराजाओं ने उन्हें हिंदुस्तान का सम्राट माना और उनके नेतृत्व में अंग्रेजों की ईंट से ईंट बजा दी। अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय सैनिकों की बगावत को देख बहादुर शाह ज़फर का भी गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने अंग्रेजों को हिंदुस्तान से खदेड़ने का आह्वान कर डाला। भारतीयों ने दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में अंग्रेजों को कड़ी शिकस्त दी।

शुरुआती क्रांति मे परिणाम हिंदुस्तानी योद्धाओं के पक्ष में रहे, लेकिन बाद में अंग्रेजों के छल-कपट के चलते प्रथम स्वाधीनता संग्राम का रुख बदल गया। और अंग्रेज़ क्रांति को दबाने में कामयाब हो गए। सम्राट बहादुर शाह ज़फर ने हुमायूं के मकबरे में शरण ली और पोते अबू बकर के साथ पकड़ लिया।

अंग्रेजों ने ज़ुल्म की सभी हदें पार कर दी थी। जब सम्राट बहादुर शाह ज़फर को भूख लगी तो अंग्रेजों ने उनके बेटों के सिर काटकर थाली में परोसकर उनके सामने रख दिए। उन्होंने मूंछों पर ताव देकर और दाढ़ी पर हाथ फेरकर अंग्रेजों को जवाब दिया कि हिन्दुस्तान के बेटे देश के लिए सर कुर्बान करके अपने बाप के पास इसी अंदाज़ में आया करते हैं।

#ऐतिहासिक #इतिहास

जब एक हाथी भड़ककर शाहजहाँ के दरबार तक पहुंच गया, तब रतलाम के महाराजा रतनसिंह राठौड़ ने बड़ी बहादुरी से हाथी का दांत पकड़कर म...
04/02/2024

जब एक हाथी भड़ककर शाहजहाँ के दरबार तक पहुंच गया, तब रतलाम के महाराजा रतनसिंह राठौड़ ने बड़ी बहादुरी से हाथी का दांत पकड़कर मात्र एक खंजर से विशालकाय हाथी को काबू किया। ये दुर्भाग्य की बात है कि इतनी वीरता उन्होंने शाहजहाँ के विरुद्ध नहीं दिखाई, वरना इतिहास कुछ और होता।

पुरू और सिकंदर (अलेक्जेंडर) विदेशी इतिहासकार की कलम से।।।।सिकन्दर ने नहीं महाराजा पुरु ने सिकन्दर को हराया था...सिकंदर अ...
28/01/2024

पुरू और सिकंदर (अलेक्जेंडर) विदेशी इतिहासकार की कलम से।।।।
सिकन्दर ने नहीं महाराजा पुरु ने सिकन्दर को हराया था...

सिकंदर अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् अपने सौतेले व चचेरे भाइयों को कत्ल करने के बाद मेसेडोनिया के सिंहासन पर बैठा था। अपनी महत्वाकांक्षा के कारण वह विश्व विजय को निकला। अपने आसपास के विद्रोहियों का दमन करके उसने ईरान पर आक्रमण किया, ईरान को जीतने के बाद गोर्दियास को जीता। गोर्दियास को विजय के बाद टायर को नष्ट कर डाला। बेबीलोन को विजय कर पूरे राज्य में आग लगवा दी। बाद में अफगानिस्तान के क्षेत्र को रोंद्ता हुआ सिन्धु नदी तक चढ़ आया।

सिकंदर को अपनी जीतों से घमंड होने लगा था। वह अपने को ईश्वर का अवतार मानने लगा, तथा अपने को पूजा का अधिकारी समझने लगा। परंतु भारत में उसका वो मान मर्दन हुआ जो कि उसकी मृत्यु का कारण बना।

सिन्धु को पार करने के बाद भारत के तीन छोटे छोटे राज्य थे।
१. तक्षशिला जहाँ का राजा अम्भी था,
२. पोरस,
३. अम्भिसार जो कि कश्मीर के चारो और फैला हुआ था। अम्भी का पुरु से पुराना बैर था, इसलिए उसने सिकंदर से हाथ मिला लिया।

अम्भिसार ने भी तटस्थ रहकर सिकंदर की राह छोड़ दी, परंतु पुरु ने सिकंदर से दो दो हाथ करने का निर्णय कर लिया।
आगे के युद्ध का वर्णन में यूरोपीय इतिहासकारों के अनुसार।
सिकंदर ने आम्भी की साहयता से सिन्धु पर एक स्थायी पुल का निर्माण कर लिया।

प्लुतार्च( Plutarch)के अनुसार:- 20,000 पैदल व 15000 घुड़सवार सिकंदर की सेना पुरु की सेना से बहुत अधिक थी, तथा सिकंदर की साहयता आम्भी की सेना ने भी की थी।

कर्तियास(Cartiyas )लिखता है कि:- सिकंदर झेलम के दूसरी और पड़ाव डाले हुए था। सिकंदर की सेना का एक भाग झेलम नदी के एक द्वीप में पहुच गया। पुरु के सैनिक भी उस द्वीप में तैरकर पहुच गए। उन्होंने यूनानी सैनिको के अग्रिम दल पर हमला बोल दिया। अनेक यूनानी सैनिको को मार डाला गया। बचे कुचे सैनिक नदी में कूद गए और उसी में डूब गए। बाकि बची अपनी सेना के साथ सिकंदर रात में नावों के द्वारा हरनपुर से 60 किलोमीटर ऊपर की और पहुच गया। और वहीं से नदी को पार किया। वहीं पर भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्ध में पुरु का बड़ा पुत्र वीरगति को प्राप्त हुआ।

एरियन(Arien )लिखता है कि:-भारतीय युवराज ने अकेले ही सिकंदर के घेरे में घुसकर सिकंदर को घायल कर दिया और उसके घोडे 'बुसे फेलास' को मार डाला।

ये भी कहा जाता है की पुरु के हाथी दल दल में फंस गए थे, तो कर्तियास लिखता है कि:- इन पशुओं ने घोर आतंक पैदा कर दिया था। उनकी भीषण चीत्कार से सिकंदर के घोडे न केवल डर रहे थे बल्कि बिगड़कर भाग भी रहे थे। अनेको विजयों के ये शिरोमणि अब ऐसे स्थानों की खोज में लग गए जहाँ इनको शरण मिल सके। सिकंदर ने छोटे शास्त्रों से सुसज्जित सेना को हाथियों से निपटने की आज्ञा दी। इस आक्रमण से चिड़कर हाथियों ने सिकंदर की सेना को अपने पावों में कुचलना शुरू कर दिया।

वह आगे लिखता है कि:- सर्वाधिक ह्रदयविदारक द्रश्य यह था कि यह मजबूत कद वाला पशु यूनानी सैनिको को अपनी सूंड से पकड़ लेता व अपने महावत को सोंप देता और वो उसका सर धड से तुंरत अलग कर देता। इसी प्रकार सारा दिन समाप्त हो जाता और युद्ध चलता ही रहता।

इसी प्रकार हिरोडोटस (Herodotus )लिखता है कि:- हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए। अपने पैरों के तले उन्होंने बहुत सारे यूनानी सैनिको को चूर चूर कर दिया।

कहा जाता है की पुरु ने अनाव्यशक रक्तपात रोकने के लिए सिकंदर को अकेले ही निपटने का प्रस्ताव रक्खा था। परन्तु सिकंदर ने भयातुर उस वीर प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।

इथोपियाई महाकाव्यों का संपादन करने वाले श्री इ० ए० दब्ल्यु० बैज लिखते है कि:- जेहलम के युद्ध में सिकंदर की अश्व सेना का अधिकांश भाग मारा गया। सिकंदर ने अनुभव किया कि यदि में लडाई को आगे जारी रखूँगा, तो पूर्ण रूप से अपना नाश कर लूँगा। अतः उसने युद्ध बंद करने की पुरु से प्रार्थना की। भारतीय परम्परा के अनुसार पुरु ने शत्रु का वद्ध नही किया। इसके पश्चात संधि पर हस्ताक्षर हुए और सिकंदर ने पुरु को अन्य प्रदेश जीतने में सहायता की।

बिल्कुल साफ़ है की प्राचीन भारत की रक्षात्मक दीवार से टकराने के बाद सिकंदर का घमंड चूर हो चुका था। उसके सैनिक भी डरकर विद्रोह कर चुके थे। तब सिकंदर ने पुरु से वापस जाने की आज्ञा मांगी। पुरु ने सिकंदर को उस मार्ग से जाने को मना कर दिया जिससे वह आया था। और अपने प्रदेश से दक्षिण की ओर से जाने का मार्ग दिया।

जिन मार्गो से सिकंदर वापस जा रहा था, उसके सैनिको ने भूख के कारण राहगीरों को लूटना शुरू कर दिया। इसी लूट को भारतीय इतिहास में सिकंदर की दक्षिण की ओर की विजय लिख दिया। परंतु इसी वापसी में मालवी नामक एक छोटे से भारतीय गणराज्य ने सिकंदर की लूटपाट का विरोध किया। इस लडाई में सिकंदर बुरी तरह घायल हो गया।

प्लुतार्च लिखता है कि:- भारत में सबसे अधिक खूंखार लड़ाकू जाति मलावी लोगो के द्वारा सिकंदर के टुकड़े-टुकड़े होने ही वाले थे, उनकी तलवारे व भाले सिकंदर के कवचों को भेद गए थे। और सिकंदर को बुरी तरह से आहात कर दिया। शत्रु का एक तीर उसका बख्तर पार करके उसकी पसलियों में घुस गया। सिकंदर घुटनों के बल गिर गया। शत्रु उसका शीश उतारने ही वाले थे की प्युसेस्तास व लिम्नेयास आगे आए। किंतु उनमे से एक तो मार दिया गया तथा दूसरा बुरी तरह घायल हो गया।

इसी भरी बाजार में सिकंदर की गर्दन पर एक लोहे की लाठी का प्रहार हुआ और सिकंदर अचेत हो गया। उसके अंगरक्षक उसी अवस्था में सिकंदर को निकाल ले गए। भारत में सिकंदर का संघर्ष सिकंदर की मृत्यु का कारण बन गया।

अपने देश वापस जाते हुए वह बेबीलोन में रुका। भारत विजय करने में उसका घमंड चूर चूर हो गया। इसी कारण वह अत्यधिक मद्यपान करने लगा और ज्वर से पीड़ित हो गया। तथा कुछ दिन बाद उसी ज्वर (बुखार) ने उसकी प्राण ले ली।

स्पष्ट रूप से पता चलता है कि सिकंदर भारत के एक भी राज्य को नही जीत पाया। परंतू पुरु से इतनी मार खाने के बाद भी इतिहास में जोड़ दिया गया कि सिकंदर ने पुरु पर जीत हासिल की। भारत में भी महान राजा पुरु की जीत को पुरु की हार ही बताया जाता है। यूनान सिकंदर को महान कह सकता है लेकिन भारतीय इतिहास में सिकंदर को नही बल्कि उस पुरु को महान लिखना चाहिए जिन्होंने एक विदेशी आक्रान्ता का मानमर्दन किया।

अधिक जानकारी के पिपासु, शोध संकलनो से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। एवम "ALEXANDER" नामक हॉलीवुड की मूवी भी देख सकते हैं।

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