05/04/2024
उत्तराखंड मे भगवान शिव के पंच केदार
#महादेव #उत्तराखंड #देवभूमीभारत
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उत्तराखंड मे भगवान शिव के पंच केदार
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उत्तराखंड होली 2024 #उत्तराखंड
यह उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक पर्व है। फूलदेई त्योहार बच्चों द्वारा मनाए जाने के कारण इसे लोक बाल पर्व भी कहते हैं। प्रसिद्ध त्योहार फूलदेई चैैत्र मास के प्रथम तिथि को मनाया जाता है। अर्थात प्रत्येक वर्ष मार्च 14 या 15 तारीख को यह त्योहार मनाया जाता है।
#फूलदेईत्योहार2024
#उत्तराखंड
आदि कैलाश भीमताल उत्तराखंड
#महाशिवरात्रि2024
#उत्तराखंड #आदिकैलाश
Ghodhakhal temple bhimtal uttarakhand
Golu devta mandir
विनायक मंदिर भीमताल उत्तराखंड
हर हर महादेव
दोस्तों आज की वीडियो में हम जाने वाले हैं मां के विभिन्न स्वरूपों की पूजा भारतवर्ष में होती है मां के कुछ प्रसिद्ध मंदिरों के बारे में इस सीरीज में हम जान रहे हैं
वीडियो अच्छी लगती है प्ले लिस्ट को शेयर जरूर करें।
https://www.youtube.com/playlist?list=PLunii5n61JrxmLslUSHw0dijbePubl8tr
रेत मे लकीर खींचने मे वो मजा कहा जो पत्थर मे लकीर खींचने का है..
जय उत्तराखंड जय भारत
आप सभी का धन्यवाद ,
क्या खास है देवभूमी उत्तराखंड आइये जानते है विडिओ मे
#उत्तराखंड
उत्तराखंड के संबंध
ऐपण कुमाऊँ की एक गरिमापूर्ण परम्परा है, इस कला का शुभ अवसरों और त्योहारों पर विशेष महत्व है, यह दिखने में रंगोली के समान लग सकती है लेकिन इसे बनाने में निश्चित सामग्री का उपयोग किया जाता है, ऐपण कला की उत्पत्ति उत्तराखँड के अल्मोड़ा से हुई हैं, जिसकी स्थापना चंद राजवंश के शासनकाल के दौरान हुई थी, यह कुमाऊं क्षेत्र में चंद वंश के शासनकाल के दौरान फला-फूला डिजाइन और रूपांकन समुदाय की मान्यताओं और प्रकृति के विभन्न पहलुओं से प्रेरित हैं, चिकित्सकों का मानना है कि यह एक दैवीय शक्ति का आह्वान करता है जो सौभाग्य लाता है, ऐपण कला उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल की विशिष्ट पहचान है.
ऐसा ही उत्तराखंड का एक लोक पर्व है 'ईगास बग्वाल. उत्तराखंड में इसे बूढ़ी दीवाली भी कहते हैं. दीपावली के ठीक 11 दिन बाद उत्तराखंड के कई इलाकों में ईगास मनाई जाती है. इस दिन गाय और बैल की पूजा करने के साथ घर की साफ-सफाई व रात को पारंपरिक भैलो खेला जाता है.
#ईगासबग्वाल
#बूढ़ीदीवाली
https://youtu.be/9dCgDJEOV2M
उत्तराखंडी पिछोडा
https://youtu.be/NhZvNW-enX0
दीवाली 2023
उत्तराखंड से लुप्त हो रही संस्कृति और इतिहास
#उत्तराखंड
उत्तराखंड की भूमि अपने विशेष लोकपर्वों के लिए प्रसिद्ध है। इन्ही लोक पर्वों में से एक पर्व है ,सातो आठो लोक पर्व। भगवान् के साथ मानवीय रिश्ते बनाकर ,उनकी पूजा अर्चना और उनके साथ आनंद मानाने का त्यौहार है , सातू आठू त्यौहार। उत्तराखंड के पिथौरागढ़ व् कुमाऊँ के सीमांत क्षेत्र में मनाया जाने वाला यह त्यौहार प्रतिवर्ष भाद्रपद की पंचमी से शुरू होकर अष्टमी तक चलता है। 2023 में सातों आठों पर्व 21 अगस्त 2023 बिरुड़ पंचमी से शुरू होगा। 23 अगस्त 2022 को सातो और 24 अगस्त को आठो मनाया जाएगा।
सातू आठू पर्व में महादेव शिव को भिनज्यू (जीजाजी ) और माँ गौरी को दीदी के रूप में पूजने की परम्परा है। सातो आठो का अर्थ है सप्तमी और अष्टमी का त्यौहार। भगवान शिव को और माँ पार्वती को अपने साथ दीदी और जीजा के रिश्ते में बांध कर यह त्यौहार मनाया जाता है
यही इस त्यौहार की सबसे बड़ी विशेषता है। कहते है ,जब दीदी गवरा( पार्वती ) जीजा मैशर (महेश्वर यानि महादेव ) से नाराज होकर अपने मायके आ जाती है ,तब महादेव उनको वापस ले जाने ससुराल आते है। दीदी गवरा की विदाई और भिनज्यू (जीजाजी) मैशर की सेवा क रूप में यह त्यौहार मनाया जाता है। यह त्यौहार कुमाऊँ सीमांत में सांतू आंठू के नाम से तथा ,नेपाल में गौरा महेश्वर के नाम से मनाया जाता है। इस लोक पर्व को गमारा पर्व भी कहा जाता है।
#बिरुड़पंचमी
#उत्तराखंड
दरअसल आजकल उत्तराखंड राज्य में भू कानून की मांग बहुत जोरों से चल रही है| इसका आभास सोशल मीडिया के ट्रेंड से हो जाता है| आइये जानते हैं भू कानून क्या है? क्या हैं भू कानून के फायदे? और उत्तराखंड में क्यों उठी है भू कानून की मांग?
उत्तराखंड के युवाओं ने हिमाचल प्रदेश की तरह अपने राज्य में भी भू कानून लागू करने की मांग की है| हिमालयी राज्य हिमाचल प्रदेश में राज्य का अपना भू कानून है| इसी के तर्ज पर उत्तराखंड वासियों की मांग है कि उनके राज्य में भी इस तरह एक भू कानून हो|
#भूकानूनउत्तराखंड
कावेरी नदी का उद्गम कोडागु में ब्रह्मगिरी पहाड़ियों में तालकावेरी नामक स्थान से होता है। यह नदी अपनी यात्रा छोटे तालाब से शुरू करती है जिसे कुंडिके तालाब कहा जाता है, बाद में कनके और सुज्योति नामक दो सहायक नदियां कावेरी से आकर इसमें मिलती हैं। ये तीनों नदियां भागमंडल नामक बिंदु पर मिलती हैं। यह 1350 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और आमतौर पर दक्षिण से पूर्व दिशा में बहती है। नदी लगभग 760 किमी लंबी है। यह कर्नाटक और तमिलनाडु राज्य में बहती है और बंगाल की खाड़ी में जाकर मिल जाती है। कावेरी नदी की प्रमुख सहायक नदियों में शिमशा नदी, हेमवती नदी, अर्कावती नदी, होन्नुहोल नदी, लक्ष्मण तीर्थ नदी काबिनी नदी, भवानी नदी, लोकपावनी नदी और अमरावती नदी शामिल हैं।
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कावेरी नदी क्यों प्रसिद्ध है?
दक्षिण भारत में लाखों लोग विशेष रूप से आदिवासी आबादी के लोग कावेरी नदी के पानी पर बहुत अधिक निर्भर हैं। इसका पानी व्यापक रूप से सिंचाई और बिजली आपूर्ति के लिए उपयोग किया जाता है। वास्तव में कावेरी नदी का इतिहास काफी दिलचस्प है और ये नदी भारत में पूजी जाने वाली पवित्र नदियों में से एक है।
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कावेरी नदी कौन कौन से राज्य में बहती है?
कावेरी कर्नाटक तथा उत्तरी तमिलनाडु में बहनेवाली एक सदानीरा नदी है। यह पश्चिमी घाट के पर्वत ब्रह्मगिरीसे निकली है। इसकी लम्बाई प्रायः 760 किलोमीटर है। दक्षिण पूर्व में प्रवाहित होकर कावेरी नदी बंगाल की खाड़ी में मिली है।
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कावेरी नदी की उत्पत्ति कैसे हुई?
भगवान गणेश द्वारा ही कावेरी नदी की उत्पत्ति मानी गई है। बहुत पहले, ऋषि अगस्त्य दक्षिण में भूमि को पानी उपलब्ध कराने के लिए एक नदी बनाना चाहते थे। उन्होंने भगवान शिव और ब्रह्मा जी का आशीर्वाद लिया और पवित्र जल से भरे अपने कमंडल को स्थापित किया।
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कावेरी को दक्षिण गंगा क्यों कहा जाता है?
कावेरी को दक्षिण भारत की गंगा कहा जाता है क्योंकि इसका प्रवाह भी गंगा नदी की तरह है और इसमें भी गंगा की तरह कई सहायक नदियाँ हैं।
अलकनंदा नदी भारतीय राज्य उत्तराखंड में स्थित एक हिमालयी नदी है और गंगा की दो प्रमुख धाराओं में से एक है, जो उत्तरी भारत और हिंदू धर्म की पवित्र नदी मानी जाती है। अलकनंदा को इसकी अधिक लंबाई और निर्वहन के कारण गंगा की स्रोत धारा माना जाता है। आइए जानें अलकनंदा नदी के इतिहास और उद्गम की कहानी,
अलकनंदा नदी का उद्गम उत्तराखंड में सतोपंथ और भगीरथ ग्लेशियरों के संगम पर होता है और तिब्बत से 21 किलोमीटर दूर भारत के माणा में यह सरस्वती नदी की सहायक नदी से मिलती है। माणा से तीन किलोमीटर नीचे अलकनंदा बद्रीनाथ के हिंदू तीर्थ स्थल से होकर बहती है। यह आगे देवप्रयाग में भागीरथी नदी से मिल जाती है और गंगा नदी के रूप में आगे बढ़ती है। यह नदी मुख्य रूप से उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में स्थित है और 195 किलोमीटर लंबी है।
#अलकनंदानदी
अलकनन्दा नदी उत्तराखंड
यमुना नदी उत्तराखंड
यमुना नदी किसकी बेटी है?
यमुना नदी गंगा नदी की सबसे लंबी सहायक नदी है, जिसकी लंबाई लगभग 860 मील या 1,380 किमी है। यमुना सूर्य और शरण्यु की पुत्री और मृत्यु के देवता यम की जुड़वां बहन है।
यमुना का दूसरा नाम क्या है?
यमुना नदी को कालिंदी नदी के नाम से भी जाना जाता है
कृष्ण ने यमुना से शादी क्यों की?
कृष्ण की जन्म-कथा में, कृष्ण के पिता वासुदेव नवजात कृष्ण को सुरक्षा के लिए यमुना नदी पार कर रहे थे। उसने यमुना को नदी पार करने के लिए एक रास्ता बनाने के लिए कहा , जो उसने एक मार्ग बनाकर किया। यह पहली बार था जब उसने कृष्ण को देखा जिससे वह बाद के जीवन में शादी करती है।
यमुना नदी का पानी काला क्यों होता है?
यमुना श्रीकृष्ण की भक्ति में पूरी तरह लीन है। इस वजह से भी इसके पानी का रंग काला माना जाता है। धार्मिक महत्त्व के अतिरिक्त प्राकृतिक कारण यह है कि यमुना जिन स्थानों से बहकर निकलती है वहां की मिट्टी और वातावरण यमुना के जल को श्याम वर्ण प्रदान करते है।
यमुना और जमुना नदी में क्या अंतर है?
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार यमुना भारत की एक पवित्र नदी है। यमुना नदी जिसे जमुना के नाम से भी जाना जाता है , यमुनोत्री ग्लेशियर से निकलती है, जो उत्तराखंड में निचले हिमालय के ऊपरी क्षेत्र में बंदरपूच पर्वत के दक्षिण-पश्चिमी ढलान पर 6,387 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।
यमुना नदी क्यों खास है?
यम की जुड़वां बहन, मृत्यु के देवता, यमुना भी भगवान कृष्ण के साथ जुड़ी हुई हैं, और उनके आठ संघों में से एक के रूप में उल्लेख किया गया है। एक नदी के रूप में, यह उनके प्रारंभिक जीवन और युवावस्था दोनों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। माना जाता है कि यमुना के पानी में स्नान या पीने से सभी पाप धुल जाते हैं
यमुना का प्राचीन नाम क्या था?
इसीलिए यमुना का नाम 'कलिंदजा' और कालिंदी भी है। दोनों का मतलब 'कलिंद की बेटी' होता है।
यमुना नदी कैसे उत्पन्न हुई?
यमुना का उद्गम यमुनोत्री ग्लेशियर से 20955 फीट की ऊंचाई पर होता है, जो बंदरपंच में स्थित है, जो उत्तराखंड में निचले हिमालय की चोटी है। प्रयागराज में त्रिवेणी संगम में यमुना नदी गंगा नदी में विलीन हो जाती है, जो हिंदुओं के लिए एक पवित्र स्थान है
#उत्तराखंडकीनदीयां
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गंगा दशहरा एक शुभ हिंदू त्योहार है जो पवित्र नदी गंगा को मनाता है, जिसे गंगा के नाम से भी जाना जाता है। यह ज्येष्ठ (मई-जून) के हिंदू महीने के दौरान मनाया जाता है और भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता में इसका बहुत महत्व है। यह त्योहार स्वर्ग से पृथ्वी पर गंगा के अवतरण की याद दिलाता है, इस पवित्र नदी की दिव्य यात्रा और इसकी जीवनदायिनी शक्तियों को चिह्नित करता है। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम गंगा दशहरा की समृद्ध परंपराओं और आध्यात्मिक महत्व के बारे में जानेंगे।
https://youtu.be/VonhFzdaMx0
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मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण महाभारत के समय में पांडवों के द्वारा किया गया था। कल्पेश्वर मंदिर के निर्माण की कथा के अनुसार जब पांडव महाभारत का भीषण युद्ध जीत गए थे तब वे गोत्र हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए भगवान शिव के पास गए लेकिन शिव उनसे बहुत क्रुद्ध थे।
इसलिए शिवजी बैल का अवतार लेकर धरती में समाने लगे लेकिन भीम ने उन्हें देख (Kalpeshwar Temple Story In Hindi) लिया। भीम ने उस बैल को पीछे से पकड़ लिया। इस कारण बैल का पीछे वाला भाग वही रह गया जबकि चार अन्य भाग चार विभिन्न स्थानों पर निकले। इन पाँचों स्थानों पर पांडवों के द्वारा शिवलिंग स्थापित कर शिव मंदिरों का निर्माण किया गया जिन्हें हम पंच केदार कहते हैं।
कल्पेश्वर मंदिर में भगवान शिव के बैल रुपी अवतार की जटाएं प्रकट हुई थी। बैल का जो भाग भीम ने पकड़ लिया था वहां केदारनाथ मंदिर स्थित हैं। अन्य तीन केदारों में मध्यमहेश्वर (नाभि), तुंगनाथ (भुजाएं) व रुद्रेश्वर (मुख) आते हैं। कल्पेश्वर मंदिर को पंच केदार में से पांचवां या अंतिम केदार के रूप में जाना जाता है।
हिंदू धर्म में कल्प वृक्ष को स्वर्ग का सबसे महत्वपूर्ण वृक्ष माना जाता है। इसी वृक्ष को भगवान श्रीकृष्ण अपनी पत्नी सत्यभामा के कहने पर स्वर्ग लोक से पृथ्वी लोक पर लेकर आये थे। पृथ्वीवासियों के लिए यह वृक्ष वरदान देने वाला होता है। प्राचीन समय में कल्पेश्वर की इस भूमि पर कल्प वृक्ष हुआ करते थे।
मान्यता है कि महान ऋषि दुर्वासा ने इसी जगह पर कल्प वृक्ष के नीचे बैठकर बहुत समय तक ध्यान लगाया था और तपस्या की थी। तभी से इस स्थल को कल्पेश्वर के नाम से जाना जाने लगा।
मंदिर उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले चमोली जिले में पड़ता है। समुंद्र तल से इसकी ऊंचाई 2,200 मीटर (7,217 फीट) है। चमोली से आपको गोपेश्वर होते हुए हेलंग पहुंचना पड़ेगा। हेलंग से कुछ किलोमीटर ऊपर उर्गम घाटी में ही कल्पेश्वर मंदिर स्थित है।
Haldwani
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यह उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक पर्व है। फूलदेई त्योहार बच्चों द्वारा मनाए जाने के कारण इसे लोक बाल पर्व भी कहते हैं। प्रसिद्ध त्योहार फूलदेई चैैत्र मास के प्रथम तिथि को मनाया जाता है। अर्थात प्रत्येक वर्ष मार्च 14 या 15 तारीख को यह त्योहार मनाया जाता है। #फूलदेईत्योहार2024 #reelsviralfb #reel2024 #उत्तराखंड #ukfestival
रेत मे लकीर खींचने मे वो मजा कहा जो पत्थर मे लकीर खींचने का है.. जय उत्तराखंड जय भारत आप सभी का धन्यवाद ,
ऐपण कुमाऊँ की एक गरिमापूर्ण परम्परा है, इस कला का शुभ अवसरों और त्योहारों पर विशेष महत्व है, यह दिखने में रंगोली के समान लग सकती है लेकिन इसे बनाने में निश्चित सामग्री का उपयोग किया जाता है, ऐपण कला की उत्पत्ति उत्तराखँड के अल्मोड़ा से हुई हैं, जिसकी स्थापना चंद राजवंश के शासनकाल के दौरान हुई थी, यह कुमाऊं क्षेत्र में चंद वंश के शासनकाल के दौरान फला-फूला डिजाइन और रूपांकन समुदाय की मान्यताओं और प्रकृति के विभन्न पहलुओं से प्रेरित हैं, चिकित्सकों का मानना है कि यह एक दैवीय शक्ति का आह्वान करता है जो सौभाग्य लाता है, ऐपण कला उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल की विशिष्ट पहचान है.
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